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Showing posts from 2017

एक जनवरी से शुरू होने वाला नया वर्ष सृष्टि सम्मत नया वर्ष नहीं है

ओ3म: एक जनवरी से शुरू होने वाला नया वर्ष सृष्टि सम्मत नया वर्ष नहीं है। वैदिक गणना के अनुसार हमारा नववर्ष चैत्र माह की शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से शुरू होता है। उसी दिन से हमारें यहां चैत्रमाह का नवरात्र पर्व शुरू होता है। एक जनवरी से शुरू होने वाला नया वर्ष ईसाई मत के मानने वालों के लिए नया वर्ष होता है । अन्य धर्म मानने वालों के लिए यह नया वर्ष नहीं होता है। इसके लिए सभी मत-मतांन्तरों के नये वर्ष की तिथियां अलग-अलग निर्धारित हैं। अब चूंकि विश्व के अधिकांश भाग में काफी से ईसाई मत के मानने वालों का प्रभुत्व चला आ रहा है। इसलिए वर्ष की गणना इसी दिन से शुरू होती है लेकिन यह वैदिक गणना के अनुसार सही नहीं है। ईसाई मत के मानने वालों का यह वर्ष 2018 है जबकि वैदिक गणना सृष्टि काल से चली आ रही है। सृष्टि की उत्पत्ति का 1968053118 वां वर्ष प्रारम्भ  होगा। आइए इस पर सिलसिलेवार प्रकाश डालें। वेदों की उत्पत्ति में कितने वर्ष हो गए हैं, इस सवाल के जवाब में आया है कि एक वृन्द छानवे करोड़, आठ लाख, बावन हजार,नौ सौ छिहत्तर अर्थात 1968053118 वर्ष वेदों की और जगत की उत्पत्ति में हो गए हैं। यह कैसे न...

अयोध्या में बाबरी मस्जिद कैसे आई?

आर्य समाज सूरजपुर के दो दशकों तक प्रधान रहे पं. महेन्द्र कुमार आर्य ने आजकल देश में अयोध्या में राम मंदिर बनाम बाबरी मस्जिद मुद्दे पर गरमागरम बहस पर सवाल खड़ा करते हुए कहा कि यह इतिहास का प्रश्न है कि अयोध्या में बाबरी मस्जिद कैसे आई? उन्होंने अपने विचार प्रकट करते हुए कहा कि भारतवर्ष आर्यों का देश हैं और महर्षि दयानंद इसे आर्यावर्त कहते थे, जो कि इसका पुरातन नाम था। यही नहीं मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम को भी आर्य कहा जाता था। हमारे इतिहासकारों ने खोज निकाला है कि श्रीराम का इतिहास 1 करोड़ 81 लाख वर्ष पुराना है तब तो इस्लाम धर्म का कोई अता-पता ही नहीं था। इस्लाम धर्म मात्र 1450 वर्ष पुराना है। इसके बाद ही अयोध्या में बाबरी मस्जिद बनी होगी तो फिर इससे पूर्व वहां पर क्या था? इस पर गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है। ऐसे में सवाल उठता है कि अयोध्या में बाबरी मस्जिद कैसे बननी चाहिए। वहां तो श्रीराम का स्थान है । वर्तमान समय में केन्द्र सरकार और उत्तर प्रदेश में भाजपा सरकारों के सत्तासीन होने के बावजूद इस तरह के प्रसंग के चलते अपनी नाराजगी व्यक्त करते हुए श्री आर्य ने कहा कि भाजपा की न...

हम हिन्दू नहीं ‘आर्य’ हैं ऐसे।

वेद-पुराणों ने बतलाए जैसे हमारे देश में ‘हिन्दू’ शब्द पर काफी चर्चा होती रहती है। हिन्दू शब्द को धर्म में कैसे बदला गया। इसका प्रयोजन क्या था, इस बात का न तो प्रमाण ही मिलता है और न ही कोई महत्वपूर्ण बात ही मिलती है। पुराने ग्रंथों और महापुरुषों के जीवनकाल की घटनाओं को ध्यान से देखें तो हिन्दू शब्द कहीं भी नहीं आता है। हां आर्य शब्द अवश्य ही सभ्यता के उदय के बाद से आया है। इस बात के जगह-जगह प्रमाण भी मिलते हैं। इन प्रमाणों को एक जगह पर प्रदर्शित करने वाली एक महत्वपूर्ण कविता अथवा आप इसे भजन भी कह सकते हैं, अवश्य आपके समक्ष आर्य समाज सूरजपुर ग्रेटर नोएडा के 20 वर्षों तक प्रधान रहे पं. महेन्द्र कुमार आर्य यहां प्रस्तुत कर रहे हैं। हमारा प्राचीन नाम हिन्दू नहीं। कहीं भी हिन्दू नाम लिखा नहीं पाया।। यवन काल से पहले का किसी पुस्तक में प्रमाण नहीं। वेद,शास्त्र उपनिषद ब्राह्मण ग्रन्थों दरम्यान नहीं। रामायण और महाभारत बतलाता कोई पुराण नहीं। जैन, बौद्ध ग्रन्थों के अन्दर मिलता कहीं निशान नहीं। नाटक और किसी कोषों में जिकर कहीं नहीं आया।। कहीं भी हिन्दू नाम लिखा नहीं पाया।। नाम आर्य पढ़...

...उस दिन देश में अपने आप रामराज आ जाएगा

हमारे देश में रामराज्य बहुत ही प्रसिद्ध है। जब भी किसी अच्छे शासन देने अथवा प्रत्येक व्यक्ति के सुख-दुख का ध्यान रखने की बात की जाती है तो यही कहा जाता है कि रामराज्य लाया जाएगा। रामराज्य की यही विशेषता थी कि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी चाहत-जरूरत की वस्तु आसानी से सुलभ हो जाती थी। प्रत्येक व्यक्ति सुखी था। चोरी-जारी आदि अपराध नहीं थे। कोई दुखी नहीं था। स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए आंदोलन के दौरान जब देश का नौजवान अपने प्राणों की बलि दे रहा था तब महात्मा गांधी ने कहा था कि आजादी मिलने के बाद देश में रामराज लाया जाएगा। यही विचारधारा आर्य विचारकों से युक्त राजनीतिक दलों की भी  रही है किन्तु आज देश में क्या हो रहा है, क्या यही राम राज्य है,क्या इससे रामराज कभी आ पाएगा। इन बातों पर विचार प्रस्तुत करते हुए आर्य समाज सूरजपुर के लगभग 20 वर्ष तक प्रधान रहे पं. महेन्द्र कुमार आर्य यह प्रेरणागीत प्रस्तुत कर रहे हैं। महात्मा गांधी के वचनों को कैसे लाया जाएगा। आज देश में जो हो रहा,क्या इससे रामराज आएगा।। मैं बतलाता हूं कि अब कैसे रामराज देश में आएगा। जिस दिन वेद के मन्त्रों से, धरती को सजाया ज...

जब कर्ण ने कृष्ण व कुन्ती की चक्रवर्ती सम्राट की पेशकश ठुकरा दी थी

दुर्योधन के साथ शान्ति वार्ता के विफल होने के पश्चात श्रीकृष्ण, कर्ण के पास जाते हैं, जो दुर्योधन का सर्वश्रेष्ठ योद्धा है। वह कर्ण का वास्तविक परिचय उसे बतातें है, कि वह सबसे ज्येष्ठ पाण्डव है और उसे पाण्डवों की ओर आने का परामर्श देते हैं। कृष्ण उसे यह विश्वास दिलाते हैं कि चूँकि वह सबसे ज्येष्ठ पाण्डव है, इसलिए युधिष्ठिर उसके लिए राजसिंहासन छोड़ देंगे और वह एक चक्रवती सम्राट बनेगा। पर कर्ण इन सबके बाद भी पाण्डव पक्ष में युद्ध करने से मना कर देता है, क्योंकि वह अपने आप को दुर्योधन का ऋणी समझता था और उसे ये वचन दे चुका था कि वह मरते दम तक दुर्योधन के पक्ष में ही युद्ध करेगा। जब महाभारत का युद्ध निकट था। तब माता कुन्ती कर्ण से भेंट करने गई और उसे उसकी वास्तविक पहचान का ज्ञान कराया। वह उसे बताती हैं कि वह उनका पुत्र है और ज्येष्ठ पाण्डव है। वह उससे कहती हैं कि वह स्वयं को कौन्तेय कहे नाकी राधेय और तब कर्ण उत्तर देता है कि वह चाहता है कि सारा सन्सार उसे राधेय के नाम से जाने नाकी कौन्तेय के नाम से। कुन्ती उसे कहती हैं कि वह पाण्डवों की ओर हो जाए और वह उसे राजा बनाएगें। तब कर्ण कहता है कि ...

...तो कुन्ती चाहती तो नहीं होता महाभारत

कर्ण की पहचान छिपाना ही भारी पड़ा राजमाता कुन्ती अगर सही समय पर कर्ण की पहचान अपने बेटे के रूप में बता देतीं तो महाभारत ही न होता। कर्ण की छवि आज भी भारतीय जनमानस में एक ऐसे महायोद्धा की है, जो जीवनभर प्रतिकूल परिस्थितियों से लड़ता रहा। बहुत से लोगों का यह भी मानना है कि कर्ण को कभी भी वह सब नहीं मिला जिसका वह वास्तविक रूप से अधिकारी था। तर्कसंगत रूप से कहा जाए तो हस्तिनापुर के सिंहासन का वास्तविक अधिकारी कर्ण ही था क्योंकि वह कुरु राजपरिवार से ही था और युधिष्ठिर और दुर्योधन से ज्येष्ठ था लेकिन उसकी वास्तविक पहचान उसकी मृत्यु तक अज्ञात ही रही। यही महाभारत का मुख्य कारण बना था। कर्ण यदि ज्येष्ठ पांडव घोषित हो जाते तो दुर्योधन किसके बल पर युद्ध करता और कर्ण-अर्जुन के सामने कौन टिक पाता। यदि इसके बाद भी भीष्म पितामह की राजसिंहासन के प्रति आस्था आड़े आती तो उसे कृष्ण और विदुर नीति की सूझबूझ से सुलझा लिया जाता।  कर्ण की छवि द्रौपदी का अपमान किए जाने और अभिमन्यु वध में उसकी नकारात्मक भूमिका के कारण धूमिल भी हुई थी और यही दोनों कारण और गुरु परशुराम से छल के बदले मिले अभिशाप ही उसकी मृत...

अथर्व वेद के रचयिता हैं अंगिरा ऋषि

प्रथम मन्वन्तर के सप्तऋषियों में मरीचि, अत्रि, पुलाहा, कृतु,पुलस्त्य,वशिष्ठ, अंगिरा ऋषि थे । ऐसा कहा जाता है कि अथर्वन ऋषि के मुख से सुने मंत्रों के आधार पर ऋषि अंगिरा ने चार वेदों में से एक अथर्ववेद को साकार रूप दिया। इसके अतिरिक्त उन्होंने तीन अन्य वेदों ऋग्वेद,सामवेद और यजुर्वेद की रचना में भी काफी सहयोग किया। सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी ने सृष्टि की रचना में सहायता के लिए अपने मानसपुत्रों और प्रजापति को रचा। उसके बाद उनकी यह इच्छा हुई कि इन मानसपुत्रों और प्रजापतियों का कल्याण कैसे हो, इसके लिए उन्होंने एक बुद्धि यानी ज्ञानी पुत्र की आवश्यकता महसूस की और उन्होंने अपने पूर्ण तेज के साथ एक पुत्र की रचना रची। ये वही रचना थे महर्षि अंगिरा जी। अंगिरा ऋषि शुरू से बहुत ही तेजवान,बुद्धिमान और आंतरिक अध्यात्मिक क्षमता वाले थे। अंगिरा ऋषि में सम्पूर्ण जगत को ज्ञान देने की क्षमता थी। अंगिरा ऋषि को उत्पन्न करने के बाद ब्रह्माजी ने संदेश दिया कि अंगिरा तुम मेरे तीसरे मानस पुत्र हो। तुम्हें यह मालूम होना चाहिए कि तुम्हारा जन्म क्यों हुआ है और तुम इस जगत में क्यों आए हो? यह तुम्हें बताता हूं। संदेश...

श्रीकृष्ण भी महात्मा विदूर से घबराते थे?

विदुर का अर्थ कुशल, बुद्धिमान अथवा मनीषी। अपनी विदुर नीति, न्यायप्रियता एवं निष्पक्षता के लिए सुविख्यात धर्मज्ञ महाराज विदुर महाभारत के मुख्य पात्रों में से एक हैं। वो हस्तिनापुर के प्रधानमंत्री, कौरवों और पांडवों के काका और धृतराष्ट्र एवं पाण्डु के भाई थे। उनका जन्म एक दासी के गर्भ से हुआ था। राजा पांडु बने तो प्रधानमंत्री विदुर बने बड़े होने पर जब राज्याभिषेक का समय आया तो सबसे बड़े होने के कारण धृतराष्ट्र ही उत्तराधिकारी थे लेकिन विदुर की नीति के चलते ही भीष्म को पाण्डु को राजगद्दी सौंपनी पड़ी क्योंकि विदुर ने ही धृतराष्ट्र के नेत्रहीन होने के कारण राजपद न दिए जाने का सुझाव दिया था।  विदुर एक दासी  पुत्र  होने के कारण भले ही राजा बनने के अधिकार से वंचित रहे। लेकिन अपनी सूझबूझ तथा समझदारी के दम पर उन्हें हस्तिनापुर का प्रधानमंत्री बनाया गया। पाण्डु को राज्य सौंपने के पीछे विदुर के फैसले का भी साथ था, जिसका विरोध धृतराष्ट्र ने किया था। क्योंकि ज्येष्ठ पुत्र के साथ पर अनुज को राज्य की गद्दी सौंप देना धृतराष्ट्र को कभी भी गंवारा ना था। लेकिन तब वे अपने नेत्रहीन होने के ...

ब्रह्मयज्ञ का अचूक साधन है गायत्री मंत्र

‘ब्रह्मयज्ञ’ के अनुष्ठान अर्थात् परमात्मा की पूजा-स्तुति,प्रार्थना और उपासना पूर्ति हेतु गायत्री मन्त्र एक अचूक साधन है। इस मन्त्र में ब्रह्मयज्ञ के तीनों अंग अर्थात स्तुति,प्रार्थना और उपासना,पूर्णरूप से समाहित है। गायत्री मन्त्र ओ३म् भूर्भुव: स्व:। तत् सवितुर्वरेण्यम् भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो न: प्रचोदयात्।। (यजुर्वेद अ.३६-मं.३) ओ३म परमात्मा का मुख्य नाम (भू:) प्राणाधार (भुव:) दुख विनाशक (स्व:) सर्वव्यापक तथा धारणकर्ता (सवितु:) सृष्टि उत्पादक पालन कर्ता तथा प्रलयकर्ता (वरेण्य) ग्रहण करने योग्य (भर्ग:) शुद्ध स्वरूप तथा पवित्र कर्ता (देवस्य) सब सुखों का दाता (तत्) तेरे इस स्वरूप को (धीमहि) धारण करें (य:) हे देव परमात्मा (न:) हमारी (धिय:) बुद्धियों को (प्रचोदयात) प्रेरणा करें अर्थात बुरे कामों से छुड़ा कर अच्छे कामों में प्रवृत करे। गायत्री मंत्र का स्तुति भाग मंत्र की तीन व्याहृतियां (भू:, भुर्व: स्व:) तथा प्रथम पाद के चार अक्षर (तत् सवितुर्वरेण्यम, भर्गो देवस्य) परमात्मा की स्तुति अर्थात उसके गुणों का स्मरण कराते हैं। गुणों के चिन्तन से अन्त:करण में परमात्मा के प्रति श...

पुण्यकार्योँ से लाभ

शारीरिक,मानसिक तथा सामाजिक उन्नति 1. यज्ञ  के अनुष्ठाान अर्थात याज्ञिक कर्मों के करने से त्याग की भावना का उदय तथा सत्व गुणों की वृद्धि होकर अन्त:करण पवित्र होता है अर्थात मन,बुद्धि,चित्त आदि की शुद्धि और इनकी शुद्धि से दुव्र्यसनों का नाश होकर भद्र यानी कल्याणकारी स्वभाव का निर्माण हो, मन को उत्तम कर्म करने की प्रेरणा मिलती है। परिणामस्वरूप मन, बु।ि और चित्त प्रसन्नता से भरपूर हो जाता है। फलत: शारीरिक स्वास्थ्य में वृद्धि होती है और अन्त:करण की पवित्रता से मानसिक उन्नति होती है। 2. ‘यज्ञ’  अर्थात लोकोपकारी कर्मों के अनुष्ठान से समाज और लोक में अभाव नष्ट होकर समरसता की स्थापना होती है तथा समाज कुंठा और हीन भावना से मुक्त होता है। प्रत्येक वर्ग में भाई चारा और सहृदयता की स्थापना होकर, समाज के सभी अंग एक साथ मिलकर बुराइयों को दूर छिटका कर, आपसी दुर्भावनाओं को त्याग समता की भावनाओं  से युक्त हो विकास की ओर अग्रसर होकर उन्नति कर सभी क्षेत्रों में सुख तथा आनन्द प्राप्त करते हैं। 3. ‘यज्ञ’ वह धर्मडाढ़ है जो कि मनुष्य को उसके कर्तव्य कर्म का बोध प्रदान कराती है। प्राप्त ‘...

कर्तव्य कर्म कौन?

मनुष्यों का शुभ कर्मों का न किया जाना तथा दुष्कर्मों का किया जाना अल्पज्ञान या अज्ञान के कारण से ही है। इस अज्ञान कारण ही मनुष्य, कर्तव्य या  अकर्तव्य कर्म का अन्तर नहीं कर पाता और ईष्र्या,मोह,लोभ,काम और क्रोध के वशीभूत हो दुष्क र्म कर बैठता है। अत: वेद ने मनुष्यों के कर्तव्य कर्मों का निर्धारण करते हुए कहा है तन्तु तन्वन् भानुमन्विहि,ज्योतिष्मत: पंथो रक्ष घिया कृतान् ।।   (ऋग्वेद मं.१०-सू.५३-मं.६) संसार का ताना-बाना बुनता हुआ (संसारिक कर्तव्य कर्मों और व्यवहारों को करता हुआ) प्रकाश के पीछे जा अर्थात ज्ञानयुक्त कर्म कर और ज्ञान भी कैसा हो? बुद्धि से बनाया,बुद्धि से परिष्कृत किया हुआ और ऋषियों द्वारा प्रदत्त तथा ज्योति से युक्त मार्गों की रक्षा कर अर्थात ज्ञान से युक्त मार्गों पर चल। मनुस्मृति में कहा भी है सर्वेषमपि चैतेषामात्मज्ञानं परं स्मृतम्। तद्ध्यंग्यसर्वविद्यानां प्राप्यते ह्यमतं तत्:।। (मनुस्मृति अ.१२-श्लोक ८५) सब कर्मों में आत्म-ज्ञान श्रेष्ठ समझना चाहिये क्योंकि यह सबसे उत्तम विद्या है और अविद्या का नाश करती है और जिससे अमृत अर्थात मुक्ति प्राप्...

स्व आयु में वृद्धि-मनुष्य के अधीन

परमात्मा ही प्राणों का उत्पादक तथा जीवों को उनके शुभाशुभ कर्मोँ के कर्म-फल रूप भोग में,उन्हें एक ‘निश्चित काल-खण्ड’ के लिये प्राणों की निश्चित मात्रा देता है। इस निश्चित मात्रा से स्पष्ट है कि श्वास और प्रश्वास की एक निश्चित संख्या परमात्मा द्वारा जीवों को प्रदान की गई है। इसी प्रकार परमात्मा ने जीवों को संसार में जन्म से पूर्व प्राण रहते अर्थात् श्वास और प्रश्वास चलते रहने के मध्य, भोगों की एक निश्चित मात्रा जीवों को पिछले जन्मों में कृत शुभाशुभ कर्मों के अनुसार भोग रूप में प्रदान की है। सभी जीवों में एक मनुष्य ही ऐसा जीव है जो ज्ञान तथा विज्ञान उपार्जन कर अपनी इच्छा शक्ति के द्वारा प्राण और भोगों के उपभोग पर नियंत्रण रख अपनी आयु में वृद्धि कर सकने मेें सफलता प्राप्त कर सकता है। परमात्मा से प्राप्त श्वास-प्रश्वास की संख्या तथा प्राप्त भोगों की मात्रा को व्यवस्थित रूप तथा योजनाबद्ध ढंग से व्यय करके अपनी आयु की वृद्धि कर सकता है। प्रथम विषय-भोग में अत्यधिक आसक्ति को त्याक मनुष्य प्राणों की प्राप्त पूंजी के व्यय पर नियंत्रण कर अधिक काल तक शरीर को जीवित रख सकने की व्यवस्था...

मन, वाणी और इन्द्रियों द्वार कृत दुष्कर्मों का भेद

मन,वाणी और इन्द्रियों द्वारा दो प्रकार के कर्म किये जाते हैं। 1.भौतिक-अर्थात ऐसे दुष्कर्म जिनका कि प्रभाव स्थाई न होकर समाप्त होने वाला हो। ऐसे कर्मों का फल इसी जन्म अर्थात् जिस जन्म में कर्म किया गया हो, उसी जन्म में प्राप्त होता है। जैसे किसी मनुष्य द्वारा किया गया अन्य मनुष्य के प्रति बुरा बर्ताव, गाली-गलौज, अपशब्द अथवा ऐसी शारीरिक हानि का पहुंचाना जो कि स्थायी न हो। इन दुष्कर्मों का प्रभाव अहंकार, ईष्र्या,द्वेष आदि को त्याग और विनम्र होकर क्षमा मांग कर तथा यदि शारीरिक चोट या जख्म होने पर स्वयं के द्वारा सेवा शुश्रूषा, देखभाल या समुचित धन देकर समाप्त किया जा सकता है। चंूकि कृत दुष्कर्मों का उपरोक्त प्रकार से कर्मफल प्रायश्चित के रूप में भोग लिया जाता है। अत: इस प्रकार के दुष्कर्मों के संस्कारों के ‘बीज’ अगले जन्मों भोगने हेतु ‘सूक्ष्म शरीर’ पर स्थिर नहीं होते अर्थात जमते नहीं हैं। वेद भगवान में कहा भी है- यदस्मृति चकृम किं चिदग्न उपारिम चरणे जातवेद:। तत: पाहि त्वम् न: प्रचेत शुभे सखिभ्यो अमृतत्वमस्तु न:।। (अथर्ववेद का.७-सू.१०६-मं.१) क्वमनुष्य से यदि आगा-पीछा बिना विच...

कर्म और कर्मफल

परमात्मा स्वच्छन्द होकर किसी आत्मा को सुखी,सम्पन्न के यहां अथवा किसी को कंगाल के यहां शरीर प्रदान नहीं करता। यदि वह ऐसा करने लगे तो उस पर अन्यायकारी , पक्षपाती और स्व्च्छाचारी होने का आरोप लगेगा। परन्तु वह ऐसा नहीं है। इसके विपरीत ऐसे दुष्कर्मों को जिनता प्रत्यक्ष या परोक्ष प्रभाव अन्य जीवों पर पड़ता है, उन्हें उीस प्रकार की शारीरिक या मानसिक हानि अथवा कष्ट प्राप्त होता हो या कृत कर्मों के कारण न्याय व्यवस्था टूटती हो, विघ्न पड़ता हो अथवा उसकी अवहेलना होती हो, तो ऐसे कृत दुष्कर्मों अथवा पापों की यथायोग्य और कर्म की प्रबलता  के अनुरूप भोग यानी दण्ड देता है। वेद में स्पष्ट कहा गया है- यत्किं चेदं वरूण दैवो जनेऽमिद्रोहं मनुष्या३Ÿचरामसि। अचित्ती यत्तव धर्मा युयोपिम मा नस्तस्मादेनसो देव रीरिष।। (ऋग्वेद म.७-सू.८९-मं.५) परमात्मा ऐसे पापों को क्षमा नहीं करता, जिससे उसकी न्याय व्यवस्था पर दोष आवे। परन्तु कोई मनुष्य परमात्मा -सम्बन्ध विषयक अपने कत्र्तव्य का पालन नहीं करता, उसके अपने सम्बन्ध विषयक पाप क्षमा कर देता है। कर्म -फल भोग-कर्ता अंग को-संसार में सर्वत्र मस्तिष्क से कर्म क...

आत्मा-स्वभाव से पवित्र

जीव-शरीरस्थ व्यापक आत्मा स्वभाव से पवित्र है। आत्मा की शक्ति से ही जीवों का दिखनेवाला स्थूल शरीर क्रियाशील है। यह आत्मा सूक्ष्म से सूक्ष्मतर ,अविनाशी तथा शरीर की समस्त इन्द्रियों का स्वामी है। इन्द्रियां तभी तक कार्य करती हैं,जब तक आत्मा शरीर में है। शरीर और शरीर के साथ समस्त इन्द्रियां नाशवान हैं,परन्तु आत्मा अनिद्यमान अर्थात नष्ट न होने वाली अविनाशी है। आत्मा नित्य अर्थात सदैव रहने वाली है। गीता में श्रीकृष्ण ने कहा है- नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावक: न चैनं क्लेदन्त्यापो न शोषयति मारुत:।। (श्रीमद्भगवद्गीता अ. २-श्लोक 23) इस आत्मा को शस्त्र नहीं काट सकते, इसको आग नहीं जला सकती, इसको जल नहीं गला सकता और वायु सुखा नहीं सकती। इस अविनाशी आत्मा का स्वामी परमात्मा है। वेद में भी कहा गया है- अग्ने घृतव्रताय ते समुद्रायेव सिन्धव:। गिरो वाश्रास ईरते।। (ऋग्वेद मण्डल ८-सूक्त 44-मंत्र २५) अर्थात यह शरीरस्थ जीवात्मा ईश्वर का सखा और सेवक है। यह अपने स्वामी का महान ऐश्वर्य चिरकाल से देख रहा है, यद्यपि शरीरबद्ध होने से कुछ काल के लिए स्वामी से विमुख हो रहा है। इस...

दु:ख क्या है और दु:ख से मुक्ति कैसे

ईश्वर ने जैसे रात-दिन, अंधकार-प्रकाश, विष-अमृत का योग बनाया है उसी प्रकार से सुख-दु:ख का भी योग है। ज्ञान सुख का स्रोत है और अज्ञानता दु:ख का मूल है। अज्ञानता के कारण ही मनुष्य को दुख प्राप्त होते हैं। मनुष्य को चाहिए कि ज्ञान एवं सत्य का मार्ग अपनाए और स्वयं को दु:ख से दूर करे साथ ही स्वयं को परमार्थ में लगाकर जीवन का अनन्तिम लक्ष्य को हासिल करें। मनुष्य स्वाभाविक ज्ञान से ऊपर उठने में समर्थ है। परिणामस्वरूप वह अपने पूर्वजों से प्राप्त ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा-दीक्षा, सत् शास्त्रों का पठन-पाठन,अध्ययन,स्वाध्याय आदि अर्थात नैमित्तिक ज्ञान के द्वारा अपने आपको निरन्तर उन्नत तथा समृद्धशाली बना पाया है। इस नैमित्तिक ज्ञान के द्वारा जहां मनुष्य ने आज ज्ञान-विज्ञान,कला-कौशल आदि का विकास कर धन,सम्पत्ति,आमोद-प्रमोद के साधन, वायु की गति से तेज गति वाले वायुयान,घर बैठे ही समस्त संसार के दृश्य देखने का माध्यम दूरदर्शन,भयंकर विनाशकारी शस्त्र, दूर से मार करने वाले प्रक्षेपास्त्र आदि का आविष्कार कर जीवन सुखमय तथा सरल बनाया है, वहीं अपने दु:खों में वृद्धि कर ली है। ज्ञान का अभिप्राय है पदार्...

आर्यावर्त और संध्या

आर्यावर्त और संध्योपासना एकदूसरे के पूरक हैं। एक के बिना दूसरा अधूरा है। इसलिए जहां आर्य शब्द आता है, वहां समझें कि इससे जुड़े व्यक्ति का परमकर्तव्य संध्योपासना है। अब प्रश्न उठता है कि संध्योपासना क्या है? तो संध्योपासना शब्द स्वयं बताता है कि ध्यान, मानसिक एकाग्रता,मौन साधना यानी योग साधना से समाधि साधना के बीच की क्रिया को संध्योपासना कहते हैं। ध्यान,मानसिक एकाग्रता, मौन साधना यानी योग साधना प्रत्येक ग्रहस्थ एवं ब्रह्मचारी के लिए आवश्यक है किन्तु योग साधना और समाधि साधना वानप्रस्थी, संन्यासी एवं पूर्ण ब्रह्मचर्य व्रत का संकल्प लेने वाले व्यक्ति या संत-धर्मात्मा के लिए उपयुक्त है। कहां और कैसे की जाए संध्योपासना संध्या सदा एकांत तथा शांत वातावरण में करनी चाहिए,जहां मन स्थिर रह सके। संध्या में मन को एकाग्र का सबसे उत्तम उपाय उन मंत्रों के अदृश्य अर्थों पर अपने मन को लगाना है। अत: अर्थ की भावना करते हुए मंत्र का जप मन में करना चाहिए और अब कभी ऐसा प्रतीत हो कि मंत्र के जप के साथ अर्थ का बोध नहीं हो रहा तो समझना चाहिए कि मन नहीं लग रहा है। इसके लिए बार-बार प्रयास करते रहना चाहिए।...

ईश प्रार्थना:दो अमोघ मंत्र

ओ३म् भूर्भुव: स्व:।  तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि।  धियो यो न प्रचोदयात् ।।  यजु: 36.3 हे प्राणस्वरूप दुखहर्ता, सकल जगत के उत्पादक हो। हम ध्यान धरते आपका, जो बुद्धि के प्रकाशक हो ।। हे परमपिता सदा हमारी सद्बुद्धि प्रकाशित कीजिये। सत्कर्मों में लगी रहे बुद्धि हमारी, ऐसा आशीष दीजिये।। ओ३म् विश्वानि देव।  सवितर्दुरितानि परासुव।  यद भद्रं तन्नआसुव।। यजु: 30.3 तू सर्वेश सकल सुखदाता,शुद्ध स्वरूप विधाता है। उसके कष्ट नष्ट हो जाते,शरण देती जो जाता है।। सारे दुर्गुणों दुव्यसनों से, हमको नाथ बचा लीजे। मंगलमय गुण-कर्म पदारथ,प्रेम सिन्धु हमको दीजे।

कौन है ईश्वर और क्या है ईश प्रार्थना

हे सर्वाधार,सर्वान्तर्यामी परमेश्वर! तुम अनन्तकाल से अपने उपकारों की वर्षा किये जाते हो। प्राणीमात्र की सम्पूर्ण कामनाओं को तुम्हीं प्रतिक्षण पूर्ण करते हो। हमारे लिए जो कुछ शुभ है तथा हितकर है, उसे तुम बिना मांगे ही स्वयं हमारी झोली में डालते जाते हो। तुम्हारे आंचल में अविचल शान्ति तथा आनन्द का वास है। तुम्हारे चरण-शरण की शीतल छाया में परम तृप्ति है, शाश्वत सुख की उपलब्धि है तथा सब अभिलाषित पदार्थों की प्राप्ति है। हे जगतपिता परमेश्वर! हममे सच्ची श्रद्धा तथा विश्वास हो। हम तुम्हारी अमृतमयी गोद में बैठने के अधिकारी बनें। अन्त:करण को मलिन बनाने वाली स्वार्थ तथा संकीर्णता सब क्षुद्र भावनाओं से हम ऊंचे उठें। काम,क्रोध,लोभ,मोह,ईष्र्या,द्वेष इत्यादि कुटिल भावनाओं तथा सब मलिन वासनाओं को हम दूर करें। अपने हृदय की आसुरी वृत्तियों के साथ युद्ध में विजय  पाने के लिए ‘हे प्रभो’ हम तुम्हें पुकारते हैं और तुम्हारा आंचल पकड़ते हैं। हे परम पावन प्रभो! हममें सात्विक प्रवत्तियां जाग्रत हों। क्षमा,सरलता,स्थिरता, निर्भयता,  अहंकारशून्यता इत्यादि शुभ भावनाएं हमारी सम्पत्ति हों। हमारा शरीर ...

अगर महर्षि दयानन्द न होते तो...

अगर महर्षि दयानन्द न होते तो हम आज गुलामी का जीवन जी रहे होते, सती प्रथा से चारों ओर हाहाकार मचा होता, बाल विधवाओं का चारों ओर साम्राज्य दिखता। जगह-जगह वृंदावन की विधवाओं जैसे आश्रम होते। सबसे बड़ी बात आज जिस आधी आबादी और महिलाओं के अधिकार की बात हो रही है वह महर्षि दयानन्द की देन हैं। उनसे पहले महिलाओं को तरह-तरह की असभ्य पदवी से अपमानित किया जा रहा था। महिलाओं को पढऩे का अधिकार भी नहीं था। महर्षि दयानन्द ने ये सारी कुरीतियों को दूर कराकर महिला शिक्षा को बढ़ावा देकर  समान अधिकार दिलाया। ढोंग-पाखण्ड और पुराणपंथियों का साम्राज्य होता और वेदों का नाम जानने वाला कोई नहीं होता। यज्ञ हवन तो दूर की बात असली ईश्वर को भी कोई नहीं जान पाता। महर्षि दयानन्द के अवतरण के समय भारत पराधीन था। सर्वत्र अविद्या, अन्धकार,ढोंग-पाखण्ड,पोपलीला आदि की घटाएं छाई हुईं थीं। भारतीय संस्कृति,सभ्यता,साहित्य,संस्कार, परम्परा, आदर्शों आदि की होली हो रही थी। इतिहास में परिवर्तन करके उसे विकृत किया जा रहा था। सत्य सनातन वैदिक धर्म लुप्त हो रहा था। मन्दिरों में पण्डों और पुजारियों का बोलबाला था, पवित्र मन्दिर प...

कैसे पूर्ण हो महर्षि दयानन्द का सपना

ओ३म् इन्द्रं वर्धन्तोऽप्तुर: कृण्वन्तो विश्वमाय्र्यम् अपघमन्तोऽरावण:। महर्षि दयानन्द का यह सपना था कि सम्पूर्ण विश्व आर्य बन जाए तो मानव का कल्याण स्वत: हो जाएगा। आर्य बनने के साथ ही दुनियां की सारी बुराइयां छू मन्तर हो जाएंगी और प्रत्येक मानव मानव से वसुधैव कुटुम्बकम् का नाता मानेगा और एकदूसरे को आगे बढ़ाने में मदद करेगा। परन्तु यह सुन्दर स्वप्न महर्षि दयानन्द ने जगत कल्याण के लिए देखा है। यह पूर्ण किस तरह से हो, यह यक्ष प्रश्न अभी भी हमारे सामने है। महर्षि दयानन्द की विचारधारा के मानने वालों का यह परम कत्र्तव्य बन जाता है कि वह अपने मार्गदर्शक द्वारा दर्शाए गए मार्ग में चल कर उनका सपना पूर्ण करें। अब यह सपना किस तरह से पूर्ण होगा। इस पर प्रकाश डालते हैं। महर्षि देव दयानन्द ने वेद का मानव मात्र के लिए यह संदेश दिया है कि वह विश्व को आर्य बनाए। इतिहास साक्षी है कि वेद के इस आदेश का अनुपालन करने में प्राचीन वैदिक ऋषियों ने अपने सम्पूर्ण सुदीर्घ जीवनों को खपा दिया था और फिर भी उनकी यह लालसा सदा बनी रहती थी कि पुन: मानव की योनि में जन्म लेकर वेद के इस आदेश का पालन किया जाए। एक यु...