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मन, वाणी और इन्द्रियों द्वार कृत दुष्कर्मों का भेद

मन,वाणी और इन्द्रियों द्वारा दो प्रकार के कर्म किये जाते हैं।
1.भौतिक-अर्थात ऐसे दुष्कर्म जिनका कि प्रभाव स्थाई न होकर समाप्त होने वाला हो। ऐसे कर्मों का फल इसी जन्म अर्थात् जिस जन्म में कर्म किया गया हो, उसी जन्म में प्राप्त होता है। जैसे किसी मनुष्य द्वारा किया गया अन्य मनुष्य के प्रति बुरा बर्ताव, गाली-गलौज, अपशब्द अथवा ऐसी शारीरिक हानि का पहुंचाना जो कि स्थायी न हो। इन दुष्कर्मों का प्रभाव अहंकार, ईष्र्या,द्वेष आदि को त्याग और विनम्र होकर क्षमा मांग कर तथा यदि शारीरिक चोट या जख्म होने पर स्वयं के द्वारा सेवा शुश्रूषा, देखभाल या समुचित धन देकर समाप्त किया जा सकता है। चंूकि कृत दुष्कर्मों का उपरोक्त प्रकार से कर्मफल प्रायश्चित के रूप में भोग लिया जाता है। अत: इस प्रकार के दुष्कर्मों के संस्कारों के ‘बीज’ अगले जन्मों भोगने हेतु ‘सूक्ष्म शरीर’ पर स्थिर नहीं होते अर्थात जमते नहीं हैं।
वेद भगवान में कहा भी है-
यदस्मृति चकृम किं चिदग्न उपारिम चरणे जातवेद:।
तत: पाहि त्वम् न: प्रचेत शुभे सखिभ्यो अमृतत्वमस्तु न:।।
(अथर्ववेद का.७-सू.१०६-मं.१)

क्वमनुष्य से यदि आगा-पीछा बिना विचारे अपराध हो जाए, उसका प्रायश्चित करके और आगे को अपराध त्याग कर शुभ कर्म करके प्रायश्चित करें।
2. सञ्चित कर्म- जिन कर्मों का प्रभाव स्थायी रूप से हो और जिनकी क्षतिपूर्ति सम्भव न
हो। ऐसे दुष्कर्मों के संस्कार निश्चय रूप से ‘सूक्ष्म शरीर’ पर ‘बीज’ रूप में स्थिर हो अगले जन्मों में कर्म-फल भोग भोगने हेतु सञ्चित होते रहते हैं। यहीं सञ्चित कर्म ही मनुष्य का ‘भाग्य’ या ‘दुर्भाग्य’ बन प्रारब्ध का निर्धारण करते हैं।
मनुस्मृति में कहा गया है-
तौ धर्म पश्यतस्तस्य पापं चातद्रि तौ सह।
याभ्यां प्राप्नोति संपृक्त: प्रत्येह च सुखासुखम्।।
(मनुस्मृति अ.१२-श्लोक १९)
मन और जीवात्मा दोनों एकत्रित होकर धर्म और अधर्म के फल को इस जन्म या अगले जन्मों में प्राप्त करते हैं और सञ्चित कर्म के कारण शरीर धारण करते हैं।
...तो औषधि की जरूरत ही क्या है?
यह आवश्यक नहीं है कि रोग,पीड़ा या दु:ख आदि योग्य से योग्य डाक्टरों,वैद्यों, सर्जनों आदि की चिकित्सा या मूल्यवान से मूल्यवान औषधि के उपचार से दु:ख,रोग आदि दूर ही हो जावें। इस तथ्या को प्राय: हम अपने जीवन में नित्य प्रतिदिन देखते रहते हैं। यदि औषधियों अथवा चिकित्सा आदि के द्वारा दु:ख आदि दूर हो ही जावें तो संसार में  कोई भी रोग, दु:ख शोक आदि से ग्रस्त न होता।
वस्तुत: रोग, दुख,पीड़ा आदि के निदान में औषधियां और चिकित्सा आदि भोग की अवधि अर्थात् प्रारब्ध के अनुरूप दु:ख आदि भोगने की अवधि को समय के भीतर समाप्त करने का कार्य करती है तथा भोगों के निर्धारित समय के व्यतीत होने के पश्चात् रोग आदि से प्राप्त शारीरिक क्षति, कमजोरी आदि को दूर करके नवीन शक्ति भी प्राप्त कराती है। ताकि मनुष्य स्वस्थ होकर अपने अन्य शेष कृत शुभाशुभ कर्मों का भोग,भोग सके। परन्तु यदि प्राप्त रोग,पीड़ा,दु:ख आदि जघन्य और दुर्दान्त दुष्कर्मों के कर्मफल भोग हैं तो वे योग्य से

योग्य चिकित्सक अथवा मूल्यवान से मूल्यवान औषधियों के उपचार के द्वारा भी दूर नहीं होते। ऐसा हम प्राय: देखते ही रहते हैं कि योग्य चिकित्सक और महंगी तथा प्रभावकारी औषधियों के द्वारा किया गया उपचार भी रोगो आदि को दूर करने में सफल नहीं हो पाता। रोगी या तो जीवन पर्यन्त दु:ख आदि भोगता रहता है या मृत्यु को प्राप्त हो जाता है।
दूसरे रोग, दु:ख,पीड़ा आदि के दूर करने हेतु औषधियां अथवा चिकित्सा आदि की अनिवार्यता नहीं है।
रोग आदि से पीडि़त कई मनुष्य चिकित्सा साधनों के अभाव अथवा धन की कमी कारण बिना चिकित्सा और औषधियों के भी ठीक हो, रोगादि से पूर्ण छुटकारा प्राप्त कर लेते हैं। उपरोक्त दोनो अवस्थाओं में अर्थात औषधियों और चिकित्सा के द्वारा दु:खों की निवृत्ति अथवा बिना औषधियों और चिकित्साओं के द्वारा दु:खों से निवृत्ति, दुष्कर्मों की प्रबलता के ऊपर निर्भर करती है।
पहली अवस्था में कर्मफल भोगों को दो प्रकार के माध्यम से दूसरी अवस्था में मात्र एक प्रकार के माध्यम से भोगा गया है। पहली अवस्था में दुष्कर्मों के कर्म-फल भोगों के भोग भोगने का प्रथम माध्यम है-दु:खों को शारीरिक या मानसिक रूप से भोगतना तथा दूसरा माध्यम है-चिकित्सा और औषधियों पर धन का खर्चा।
चिकित्सा तथा औषधियों पर धन का व्यय एक प्रकार से प्रायश्चित का ही रूप भी है। धन का व्यय मानसिक दुख देता है। कभी-कभी तो चिकित्सा और औषधियों पर इतना धन खर्च हो जाता है कि दूसरी अनिवार्य आवश्यकताओं की पूर्ति करना मुश्किल हो जाता है।
जन्म-जन्मान्तरों में कृत कर्मों का ज्ञान
क्या कोई मनुष्य अपने पूर्व जन्मों को तथा उन-जन्मों में कृत कर्मों को जान सकता है? कदापि नहीं, पूर्व जन्मों को और उनमें कृत कर्मों को केवल योगी जन ही जान सकते है,साधारण मनुष्य नहीं।
गीता में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा है

बहुनि में व्यतीतानि जन्मानि तब चार्जुन।
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप।।
(श्रीमद्भगवद् गीता अ.४-श्लोक ५)
हे परंतप अर्जुन ! तेरे और मेरे बहुत से जन्म हो चुके हैं उन सबको तू नहीं जानता है किन्तु मैं जानता हूं। योगीराज श्रीकृष्ण जी का पिछले जन्मों को जानने का कारण था कि
वे योग के आठ  अंगों (यम,नियम,आसन,प्राणायाम,प्रत्याहार, धारण,ध्यान और समाधि) का अनुष्ठान तथा सतत् अभ्यास से, अपने आपको संसार में व्यापक ‘माया’ से पृथक कर, सृष्टिकर्ता परमात्मा को अपने अन्त:करण में स्थिर करके ‘पराबुद्धि’ के योग से उसका साक्षात्कार कर चुके थे।
ज्ञान न होने का कारण
प्रथम कारण-जीवात्मा और परमात्मा के मध्य ‘माया’ अर्थात सांसारिक भोग पदार्थों के भोगने की लालसा,लालच,लोभ, मोह,ईष्र्या, द्वेष, मत्सर आदि का आवरण यानी पर्दा है।
द्वितीय कारण-अन्त:करण के तीन दोष (१)मल अर्थात मन का अपवित्र होना, दूसरे की हानि या कष्ट देखने का विचार मन में रखना और मन का वासना से युक्त होना। (२) विक्षेप अर्थात मन की चंचलता और मन का इच्छाओं से युक्त होना। (३) आवरण अर्थात अहंकार का होना।
तृतीय कारण-मनुष्य का तीन ईष्णाओं से युक्त होना। प्रथम ईष्णा है पुत्रेष्णा अर्थात पुत्र की प्राप्ति की इच्छा, द्वितीय-वित्तेष्णा अर्थात अधिक से अधिक धन सम्पत्ति का स्वामी होने की इच्छा और तृतीय लोकेष्णा अर्थात संसार में मेरा यश हो की इच्छा का रखना। जिस प्रकार से गन्दे जल में सूर्य, चन्द्र, तारों एवं स्वयं की परछाईं दृष्टिगोचर नहीं होती उसी प्रकार उपरोक्त माया,मन के तीन दोष और ईष्णाओं के कारण तथा योगाभ्यास का अभाव ही मनुष्य को उनके पूर्व जन्मों तथा उनमें कृत कमों का ज्ञान नहीं होने देता।
चतुर्थ कारण-दीर्घ (लम्बे) समय का व्यतीत होना। इसे ऐसे समझा जा सकता है-कि क्या हमें अपने वर्तमान जीवन की कुछ प्रमुख घटनाओं को छोडक़र बीते दिनों की

प्रतिदिन की हुई घटनाओं का अथवा अपने जीवन द्वारा कृत प्रत्येक छोटे से छोटे कर्म का स्मरण है? क्या हम बता सकते हैं कि आज से एक वर्ष पूर्व, ठीक आज की तिथि या तारीख को हमने  प्रात:काल नाश्ते में क्या खाया, दोपहर के भोजन में तथा रात्रि के भोजन में क्या-क्या खाया अथवा कितने बजे सोये या कहां-कहां गये या ठीक इसी क्षण हम किस विशेष स्थान पर थे? अच्छा एक वर्ष पहले की बात छोड़ दें, क्या हमें स्मरण है कि पिछले माह,ठीक आज के दिन, कितने बजे सोकर उठे, उस समय कितने बजकर कितने मिनट और कितने सेकेण्ड थे। स्पष्ट है कि इन प्रश्नों का उत्तर प्राप्त होना बिलकुल असंभव है।
सृष्टि उत्पत्ति से लेकर आज तक लगभग १,६७,२९,४९,१०० वर्ष का दीर्घ काल व्यतीत हो चुका है। इस दीर्घ काल के मध्य हमारी आत्मा ने न जाने कितने जन्म तथा योनियां प्राप्त की होंगी? जब वर्तमान जन्म की एक माह पहले की व्यतीत कार्यकलाप का उत्तर प्राप्त नहीं हो सकता तो पिछले जन्मों के ज्ञान का होना और उनमें कृत कर्मों का स्मरण रहना तो नितान्त असम्भव है।
पंचम कारण-आध्यात्मिक ज्ञान के अभाव का होना।
मनुस्मृति में कहा भी है-
वेदोभ्यासेन सततं शौचने तपसं च।
अद्रोहेण च भूतानाम जाति स्मरति पोर्विकीम्।।
(मनुस्मृति अ.४-श्लोक १४८)
नित्य वेदाभ्यास,पवित्रता,तप और जीवों पर दया, यह सब कार्य करने से, पूर्व जन्मों का स्मरण किया जा सकता है।

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