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कर्म और कर्मफल

परमात्मा स्वच्छन्द होकर किसी आत्मा को सुखी,सम्पन्न के यहां अथवा किसी को कंगाल के यहां शरीर प्रदान नहीं करता। यदि वह ऐसा करने लगे तो उस पर अन्यायकारी , पक्षपाती और स्व्च्छाचारी होने का आरोप लगेगा। परन्तु वह ऐसा नहीं है।
इसके विपरीत ऐसे दुष्कर्मों को जिनता प्रत्यक्ष या परोक्ष प्रभाव अन्य जीवों पर पड़ता है, उन्हें उीस प्रकार की शारीरिक या मानसिक हानि अथवा कष्ट प्राप्त होता हो या कृत कर्मों के कारण न्याय व्यवस्था टूटती हो, विघ्न पड़ता हो अथवा उसकी अवहेलना होती हो, तो ऐसे कृत दुष्कर्मों अथवा पापों की यथायोग्य और कर्म की प्रबलता  के अनुरूप भोग यानी दण्ड देता है।
वेद में स्पष्ट कहा गया है-
यत्किं चेदं वरूण दैवो जनेऽमिद्रोहं मनुष्या३Ÿचरामसि।
अचित्ती यत्तव धर्मा युयोपिम मा नस्तस्मादेनसो देव रीरिष।।
(ऋग्वेद म.७-सू.८९-मं.५)
परमात्मा ऐसे पापों को क्षमा नहीं करता, जिससे उसकी न्याय व्यवस्था पर दोष आवे। परन्तु कोई मनुष्य परमात्मा -सम्बन्ध विषयक अपने कत्र्तव्य का पालन नहीं करता, उसके अपने सम्बन्ध विषयक पाप क्षमा कर देता है।
कर्म -फल भोग-कर्ता अंग को-संसार में सर्वत्र मस्तिष्क से कर्म करने वाले मनुष्यों अर्थात वैज्ञानिकों,प्रोफेसरों आदि को हाथ पैर से कार्य करने वाले मनुष्यों की अपेक्षा अधिक पारिश्रामिक प्राप्त होता है। इससे स्पष्ट है कि विभिन्न अंगों के द्वारा किये गये कर्मों का फल विभिन्न होता है। इसी प्रकार शरीर के जिस अंग के द्वारा दुष्कर्म किया जाता है। उसका कर्मफल भोग उसी अंग को प्राप्त होता है। मन,वाणी, हाथ-पैर आदि अंगों के द्वारा कृत

दुष्कर्मों का कर्म-फल भोग मन,वाणी, हाथ पैर आदि को प्राप्त होता है।
मन के द्वारा कृत दुष्कर्म-दूसरे के द्रव्य में ध्यान, दूसरे के अनिष्ट का विचार और नास्तिकता अर्थात् ईश्वर की सत्ता को न मानना। मन में ईष्र्या,द्वेष,लोभ,मोह तथा दूसरों के
दु:ख सुनकर मन ही मन खुश होना तथा उन्हें कष्ट में देखने की इच्छा रखना।
मनुस्मृति में कहा भी है-
पर द्रव्येष्वमिध्यानं मनसानिष्टचिन्तनम़्।
वितथामिनिवेŸश्च त्रिविधं कर्म मानसम् ।।
(मनु. अ.१२-श्लोक ५)
दूसरे के द्रव्य में ध्यान,मन से अनिष्ट की चिन्ता और नास्तिकता यह तीन प्रकार के कर्म मन से उत्पन्न होने वाले दोष हैं। वाणी के द्वारा कृत दुष्कर्म-कटु वचनों का बोलना,मिथ्या यानी झूठ बोलना, आत्मा के विरुद्ध अर्थात आत्मा में कुछ हो परन्तु वाणी से कुछ और बोलना,चुगली आदि करना,पीठ पीछे निन्दा करना, गाली आदि देना या पीठ पीछे आलोचना करना,वाणी के द्वारा अनादर करना और असम्बद्ध बकवास करना।
शरीरस्थ कर्मेन्द्रियों द्वारा दुष्कर्म-चोरी,बलात्कार,उठाईगिरी,राहजनी,लूटमार आदि दुष्कर्म अर्थात दूरे के अधिकार की वस्तु को बलपूर्वक अपने अधिकार में लेना, अनुचित कार्य सिद्धि के लिए किसी को भयभीत करना तथा हिंसा आदि के द्वारा प्राण लेना अथवा शारीरिक हानि पहुंचाना आदि।
वेद में भगवान ने सात कुमर्यादाओं पर चलना पाप कहा है-
सप्त मर्यादा: कवयंस्ततक्षुस्तासामिदेश्कामभ्यहुरो गात्।
(अथर्ववेद का.५-सू.१-मं.६)
ऋषियों ने ये सात मर्यादाएं निम्न ठहराईं हैं। उनसे एक भी चलता हुआ पापवान होता है। इन सात मर्यादाओं की व्याख्या भगवान यास्क ने निरू.६-२९ में इस प्रकार की है-
1. स्तेय अर्थात् चोरी न करना, 2. तल्पारोहण अर्थात व्यभिचार 3. ब्रह्म हत्याम् अर्थात ब्रह्म-ज्ञानी मनुष्य की हत्या 4. भूण हत्याम् अर्थात गर्भ हत्या 5. सुरापान अर्थात शराब पीना, 6.

दुष्कृतस्थ कर्मण: पुन: पुन: सेवा अर्थात दुष्कर्मों को बार-बार करना 7. पातकेंऽनुतोद्यम् अर्थात् पाप लगाने में झूठ बोलना।
मनु महाराज ने संक्षेप में कहा भी है-
मानसं मनसैवायमुपभुङ्क्ते शुभाशुभम्।
वाचा वाचा कृतं कर्म कायेनैव च कायिकम्।।
(मनुस्मृति अ.१२-श्लोक ८)
मन से किए हुए कर्म का मानसिक,वाणी से कहे कर्म का वाणी और शरीर से किये गये कर्म का फल शारीरिक दण्ड होता है। जिस प्रकार का कर्म किया जाता है उसी प्रकार का फल मिलता है।

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