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स्व आयु में वृद्धि-मनुष्य के अधीन

परमात्मा ही प्राणों का उत्पादक तथा जीवों को उनके शुभाशुभ कर्मोँ के कर्म-फल रूप भोग में,उन्हें एक ‘निश्चित काल-खण्ड’ के लिये प्राणों की निश्चित मात्रा देता है। इस निश्चित मात्रा से स्पष्ट है कि श्वास और प्रश्वास की एक निश्चित संख्या परमात्मा द्वारा जीवों को प्रदान की गई है।

इसी प्रकार परमात्मा ने जीवों को संसार में जन्म से पूर्व प्राण रहते अर्थात् श्वास और प्रश्वास चलते रहने के मध्य, भोगों की एक निश्चित मात्रा जीवों को पिछले जन्मों में कृत शुभाशुभ कर्मों के अनुसार भोग रूप में प्रदान की है।
सभी जीवों में एक मनुष्य ही ऐसा जीव है जो ज्ञान तथा विज्ञान उपार्जन कर अपनी इच्छा शक्ति के द्वारा प्राण और भोगों के उपभोग पर नियंत्रण रख अपनी आयु में वृद्धि कर
सकने मेें सफलता प्राप्त कर सकता है। परमात्मा से प्राप्त श्वास-प्रश्वास की संख्या तथा प्राप्त भोगों की मात्रा को व्यवस्थित रूप तथा योजनाबद्ध ढंग से व्यय करके अपनी आयु की वृद्धि कर सकता है।
प्रथम विषय-भोग में अत्यधिक आसक्ति को त्याक मनुष्य प्राणों की प्राप्त पूंजी के व्यय पर नियंत्रण कर अधिक काल तक शरीर को जीवित रख सकने की व्यवस्था कर सकता है। किसी कवि ने कहा भी है
बैठत बारह चलत अठारह, सोवत जाये बीस।
मैथुन करत चौसठ, क्यों न भजो जगदीश।।
द्वितीय विषय-प्राणायाम क्रिया के द्वारा प्राप्त प्राणों की मात्रा को व्यय को नियंत्रित किया जा सकता है। प्राचीन काल में ऋषि,मुनि महीनों ही नहीं, वर्षों तक प्राणायाम के द्वारा
समाधि अवस्था में रहकर, सैकड़ों वर्षों तक जीवित रहते थे।
परमात्मा द्वारा सीमित मात्रा में प्रदत्त भोग सामग्री का नियंत्रित मात्रा में उपभोग कर भी आयु में वृद्धि की जा सकती है। इसके लिये पेट से ऊपर न खाकर, भोजन के समय थोड़ी सी भूख रहते, भोजन समाप्त किया जाना आवश्यक है।
भूख और प्यास क्यों?
प्राण सूर्य की किरणों तथा गर्मी तथा वातावरण की वायु के संयोग द्वारा उत्पन्न मिश्रण है तथा समस्त सृष्टि में व्यापक हो रहा है। परिणामस्वरूप सूक्ष्म से सूक्ष्म अवकाश अर्थात खाली स्थानों में प्राणों की उपस्थिति के कारण ही सूक्ष्म से सूक्ष्म स्थान में भी जीवन पाया जाता है। समस्त जीवों के शरीरों में उपस्थित प्राण, प्रत्येक क्षण खाये गये भोजन और जल

के अवयवों को प्रश्वास के माध्यम से शरीर के बाहर निकालते रहते हें। जब तक प्राणों का प्रभाव भोजन पर रहता है। तब तक कोई कष्ट अर्थात भूख की अनुभूति नहीं होती है। खाये गये भोजन के समाप्त होते ही अर्थात पेट में भोजन के अंशों के समाप्त होते ही,प्राण शरीर के अवयवों पेट आदि पर प्रभाव डालने लगते हैं। परिणाम स्वरूप पेट में कष्ट अर्थात भूख लगने लगती है।
इसी प्रकार पेट में उपस्थित जल के समाप्त होने पर प्यास का अनुभव होता है अर्थात प्यास लगने लगती है। गर्मियों में प्यास ज्यादा लगने के कारण है कि सूर्य की किरणों का तापमान अधिक होता है। अधिक ऊष्मा के कारण शरीर के छिद्रों से जल वाष्प बन कर निकलने लगता है जिसे में साधारण भाषा में पसीना कहते हैं। यह पसीना हमारे पेट में पड़े जल के वाष्पीकरण से ही निकलता है। पसीना में जल तत्व के साथ अन्य तत्व निकलते हैं,इस कारण शरीर के मेधा में भी अन्तर आ जाता है।
शुभ कर्म करना ही लाभप्रद
जब कर्मों का करना मनुष्य मात्र के लिए नैसर्गिक रूप से अनिवार्य ही है तो शुभ कर्म ही क्यों न किये जायें? जो कि अभीष्ट फलों के दाता हैं, अर्थात कर्म-फल भोग रूप में सुख तथा आनन्द देने वाले हैं। वेदों  भगवान ने भी शुभ कर्म करने का आदेश दिया है
कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं् समा:।।
(यजुर्वेद अ.४०-मं. २)
इस लोग में शुभ कर्मों को निश्चयपूर्वक करता हुआ सौ वर्ष तक जीने की इच्छा कर। अत: मनुष्यों को योग्य है कि
भत्वा कर्माणि सीव्यति। (निरुक्त ३-१)
अर्थात विचार कर कर्म करे, अन्धाधुन्ध कर्म न करे। ऐसा करने से शुभ और अशुभ कर्मों का ज्ञान नहीं रहता। कर्मों की गति तेज होने के कारण अशुभ कर्मों के करने की संभावना अधिक बढ़ जाती है।
गीता में श्रीकृष्ण जी का कहना है कि

नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मण:
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्धयेदकर्मण:।।
(श्रीमद्भगवद् गीता अ.३-श्लोक ८)
हे मनुष्य! तू शास्त्र में निहित अपना कत्र्तव्य कर्म कर, कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है तथा कर्म न करने से तेरा शरीर-निर्वाह भी सिद्ध नहीं होगा।
नर तन पाया और शुभ कर्म न किये व्यर्थ गंवाया
अत: मनुष्य उस ‘जीव’ का जानना जो कर्म करने से पूर्व विचार करे कि जिस कर्म को मैं करने जा रहा हूं, वह वेदोक्त, कत्र्तव्य की भावना से युक्त, नीतियुक्त तथा श्रेष्ठ मर्यादाओं को पालन करने वाला है अथवा नहीं है। मेरे कृत कर्म का परिणाम क्या होगा? कहीं वह अन्य जीव के लिए अहितकारी तो नहीं ? मेरे कत्र्तव्य पालन न करने से किसी का अहित तो नहीं हो रहा है।?

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