ईश्वर ने जैसे रात-दिन, अंधकार-प्रकाश, विष-अमृत का योग बनाया है उसी प्रकार से सुख-दु:ख का भी योग है। ज्ञान सुख का स्रोत है और अज्ञानता दु:ख का मूल है। अज्ञानता के कारण ही मनुष्य को दुख प्राप्त होते हैं। मनुष्य को चाहिए कि ज्ञान एवं सत्य का मार्ग अपनाए और स्वयं को दु:ख से दूर करे साथ ही स्वयं को परमार्थ में लगाकर जीवन का अनन्तिम लक्ष्य को हासिल करें।
मनुष्य स्वाभाविक ज्ञान से ऊपर उठने में समर्थ है। परिणामस्वरूप वह अपने पूर्वजों
से प्राप्त ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा-दीक्षा, सत् शास्त्रों का पठन-पाठन,अध्ययन,स्वाध्याय आदि अर्थात नैमित्तिक ज्ञान के द्वारा अपने आपको निरन्तर उन्नत तथा समृद्धशाली बना पाया है। इस नैमित्तिक ज्ञान के द्वारा जहां मनुष्य ने आज ज्ञान-विज्ञान,कला-कौशल आदि का विकास कर धन,सम्पत्ति,आमोद-प्रमोद के साधन, वायु की गति से तेज गति वाले वायुयान,घर बैठे ही समस्त संसार के दृश्य देखने का माध्यम दूरदर्शन,भयंकर विनाशकारी शस्त्र, दूर से मार करने वाले प्रक्षेपास्त्र आदि का आविष्कार कर जीवन सुखमय तथा सरल बनाया है, वहीं अपने दु:खों में वृद्धि कर ली है।
ज्ञान का अभिप्राय है पदार्थों के गुण,कर्म और स्वभाव को यथावत़् जानना जो पदार्थ जैसा हो उसको उसी प्रकार जानने का नाम ज्ञान है।
आध्यात्मिक ज्ञान से आशय है परमात्मा और आत्मा के गुण,कर्म और स्वभाव को यथावत जानकर उसके वास्तविक स्वरूप को जानना।
ज्ञान तीन प्रकार का होता है।
1.मिथ्या ज्ञान-पदार्थों के गुण,कर्म और स्वभाव को यथावत् न जानकर उल्टा जानना अर्थात पदार्थ जैसा है उसको वैसा न जानना जैसे शरीर को आत्मा और रस्सी को सांप समझना।
2.व्यवहारिक ज्ञान- प्राकृतिक तत्वों के संयोग से उत्पन्न धन,सम्पत्ति,जमीन जायदाद और भौतिक वस्तुओं का ज्ञान।
3.पारमार्थिक ज्ञान-परमात्मा तथा आत्मा के यर्थात् स्वरूप अर्थात उसके गुण,कर्म और स्वभाव को यथावत् जानना।
प्रथम दो प्रकार के ज्ञान मनुष्य को इन्द्रियों का दास बनाते हैं। ऐसे मनुष्य खाओ-पियो और मौज करो को ही जीवन का परम लक्ष्य मानकर शरीर की सेवा-सुश्रूषा, सजाने-संवारने तथा इन्द्रियों के विषयों को भोग भोगने में ही अपना समस्त जीवन व्यतीत करते हैं। प्राप्त वर्तमान शरीर को ही सब कुछ समझ कर, इससे आगे शरीर की सत्ता को नकारते है। इस शरीर में व्यापक आत्मा की सत्ता तथा मृत्यु पश्चात् पुर्नजन्म को न मानकर, उसे अदृश्य मान,इसी वर्तमान जीवन को अन्तिम जीवन जानते तथा मानते हैं। ऐसे स्वशरीर पोषी
मनुष्य आमोद-प्रमोद, नैतिक-अनैतिक कर्मों के द्वारा धन-सम्पत्ति तथा अधिकार आदि की प्राप्ति में ही समस्त जीवन लगाकर अन्त में मृत्यु को प्राप्त हो, जन्म-जन्मान्तरों में कर्मफल भोग रूप में कृत कर्मानुसार नाना प्रकार के क्लेश, दु:ख,पीड़ा रोग, शोक आदि को प्राप्त करते हैं।
तीसरे प्रकार का ज्ञान अर्थात पारमार्थिक ज्ञान ही सर्वोत्तम ज्ञान है जो कि धर्म-अधर्म, न्याय-अन्याय, उचित-अनुचित तथा कर्तव्य-अकर्तव्य का बोध कराता है। इन सबका बोध ही मनुष्य को शुभ कर्मों को करने वाला बनाता है। इसका परिणाम कर्मफल भोग रूप में जन्म-जन्मान्तरेां में सुख,चैन तथा आनन्द प्राप्त करता है।
मनुष्य स्वाभाविक ज्ञान से ऊपर उठने में समर्थ है। परिणामस्वरूप वह अपने पूर्वजों
से प्राप्त ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा-दीक्षा, सत् शास्त्रों का पठन-पाठन,अध्ययन,स्वाध्याय आदि अर्थात नैमित्तिक ज्ञान के द्वारा अपने आपको निरन्तर उन्नत तथा समृद्धशाली बना पाया है। इस नैमित्तिक ज्ञान के द्वारा जहां मनुष्य ने आज ज्ञान-विज्ञान,कला-कौशल आदि का विकास कर धन,सम्पत्ति,आमोद-प्रमोद के साधन, वायु की गति से तेज गति वाले वायुयान,घर बैठे ही समस्त संसार के दृश्य देखने का माध्यम दूरदर्शन,भयंकर विनाशकारी शस्त्र, दूर से मार करने वाले प्रक्षेपास्त्र आदि का आविष्कार कर जीवन सुखमय तथा सरल बनाया है, वहीं अपने दु:खों में वृद्धि कर ली है।
ज्ञान का अभिप्राय है पदार्थों के गुण,कर्म और स्वभाव को यथावत़् जानना जो पदार्थ जैसा हो उसको उसी प्रकार जानने का नाम ज्ञान है।
आध्यात्मिक ज्ञान से आशय है परमात्मा और आत्मा के गुण,कर्म और स्वभाव को यथावत जानकर उसके वास्तविक स्वरूप को जानना।
ज्ञान तीन प्रकार का होता है।
1.मिथ्या ज्ञान-पदार्थों के गुण,कर्म और स्वभाव को यथावत् न जानकर उल्टा जानना अर्थात पदार्थ जैसा है उसको वैसा न जानना जैसे शरीर को आत्मा और रस्सी को सांप समझना।
2.व्यवहारिक ज्ञान- प्राकृतिक तत्वों के संयोग से उत्पन्न धन,सम्पत्ति,जमीन जायदाद और भौतिक वस्तुओं का ज्ञान।
3.पारमार्थिक ज्ञान-परमात्मा तथा आत्मा के यर्थात् स्वरूप अर्थात उसके गुण,कर्म और स्वभाव को यथावत् जानना।
प्रथम दो प्रकार के ज्ञान मनुष्य को इन्द्रियों का दास बनाते हैं। ऐसे मनुष्य खाओ-पियो और मौज करो को ही जीवन का परम लक्ष्य मानकर शरीर की सेवा-सुश्रूषा, सजाने-संवारने तथा इन्द्रियों के विषयों को भोग भोगने में ही अपना समस्त जीवन व्यतीत करते हैं। प्राप्त वर्तमान शरीर को ही सब कुछ समझ कर, इससे आगे शरीर की सत्ता को नकारते है। इस शरीर में व्यापक आत्मा की सत्ता तथा मृत्यु पश्चात् पुर्नजन्म को न मानकर, उसे अदृश्य मान,इसी वर्तमान जीवन को अन्तिम जीवन जानते तथा मानते हैं। ऐसे स्वशरीर पोषी
मनुष्य आमोद-प्रमोद, नैतिक-अनैतिक कर्मों के द्वारा धन-सम्पत्ति तथा अधिकार आदि की प्राप्ति में ही समस्त जीवन लगाकर अन्त में मृत्यु को प्राप्त हो, जन्म-जन्मान्तरों में कर्मफल भोग रूप में कृत कर्मानुसार नाना प्रकार के क्लेश, दु:ख,पीड़ा रोग, शोक आदि को प्राप्त करते हैं।
तीसरे प्रकार का ज्ञान अर्थात पारमार्थिक ज्ञान ही सर्वोत्तम ज्ञान है जो कि धर्म-अधर्म, न्याय-अन्याय, उचित-अनुचित तथा कर्तव्य-अकर्तव्य का बोध कराता है। इन सबका बोध ही मनुष्य को शुभ कर्मों को करने वाला बनाता है। इसका परिणाम कर्मफल भोग रूप में जन्म-जन्मान्तरेां में सुख,चैन तथा आनन्द प्राप्त करता है।
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