‘ब्रह्मयज्ञ’ के अनुष्ठान अर्थात् परमात्मा की पूजा-स्तुति,प्रार्थना और उपासना पूर्ति हेतु गायत्री मन्त्र एक अचूक साधन है। इस मन्त्र में ब्रह्मयज्ञ के तीनों अंग अर्थात स्तुति,प्रार्थना और उपासना,पूर्णरूप से समाहित है।
गायत्री मन्त्र
ओ३म् भूर्भुव: स्व:। तत् सवितुर्वरेण्यम् भर्गो देवस्य धीमहि।
धियो यो न: प्रचोदयात्।। (यजुर्वेद अ.३६-मं.३)
ओ३म परमात्मा का मुख्य नाम (भू:) प्राणाधार (भुव:) दुख विनाशक (स्व:) सर्वव्यापक तथा धारणकर्ता (सवितु:) सृष्टि उत्पादक पालन कर्ता तथा प्रलयकर्ता (वरेण्य) ग्रहण करने योग्य (भर्ग:) शुद्ध स्वरूप तथा पवित्र कर्ता (देवस्य) सब सुखों का दाता (तत्) तेरे इस स्वरूप को (धीमहि) धारण करें (य:) हे देव परमात्मा (न:) हमारी (धिय:) बुद्धियों को (प्रचोदयात) प्रेरणा करें अर्थात बुरे कामों से छुड़ा कर अच्छे कामों में प्रवृत करे।
गायत्री मंत्र का स्तुति भाग
मंत्र की तीन व्याहृतियां (भू:, भुर्व: स्व:) तथा प्रथम पाद के चार अक्षर (तत् सवितुर्वरेण्यम, भर्गो देवस्य) परमात्मा की स्तुति अर्थात उसके गुणों का स्मरण कराते हैं। गुणों के चिन्तन से अन्त:करण में परमात्मा के प्रति श्रद्धा तथा प्रेम उत्पन्न होता है।
गायत्री मंत्र में प्रार्थना भाग
मंत्र का द्वितीय पाद (धियो यो न: प्रचोदयात) प्रार्थना अंग है। अर्थात हे! परमात्मा हमारी बुद्धियों को प्रेरणा कर कि हम पापों को त्याग शुभ कर्म करेंं।
गायत्री मंत्र का उपासना अंग
प्रथम पाद का ही अन्तिम शब्द ‘धीमहि’ मंत्र का उपासना अंग है जिसका अर्थ है कि मैं परमात्मा को धारण अर्थात् उसके गुण,कर्म और स्वभाव के सदृश्य अपने गुण,कर्म और स्वभाव
का निर्माण कर उसके समीपस्थ होता हूं।
गायत्री मन्त्र की जाप विधि
गायत्री मंत्र से परमात्मा की पूजा (उपासना) तथा साधना के लिए आवश्यक है कि मंत्र के प्रत्येक शब्द का अर्थ और उसकी भावना को,साधक अपने अन्त:करण में धारण करें तथा की गई प्रार्थना के अनुसार अपने गुण,कर्म और स्वभाव का निर्माण करें। जैसे परमात्मा का नाम ‘ओ३म्’ है अर्थात परमात्मा विराट् तथा अग्नि स्वरूप है, अत: मैं भी अपने हृदय को संकुचित न बनाकर उसे विराट् अर्थात विशाल बनाऊं, परमात्मा अग्नि स्वरूप है अत: मेरा भी अन्त:करण उपस्थित अग्नि में जल कर भस्म हो जावे।
परमात्मा ‘भू:’ अर्थात प्राणी का आधार है,मैं भी किसी जीव की हत्या आदि न करूं और यदि मनुष्यादि किसी भी जीव के प्राणों पर संकट आया हो, तो यथा सामथ्र्य उसके प्राणों की रक्षा करूं।
परमात्मा ‘भुव:’ अर्थात दु:खों का विनाशक है, मैं भी उसके अनुरूप यथा-संभव मनुष्यादि प्राणी मात्र के दु:खों का विनाश अर्थात दु:खों को कम या उन्हें समाप्त करूं।
परमात्मा ‘स्व:’ अर्थात सर्वव्यापक एवं सबका धारणकर्ता है। अत: मैं भी परमार्थ परोपकार और व्यवहार के द्वारा लोकप्रिय बन,सबके अन्त:करण में अपना स्थान स्थापित करूं तथा यथा सामथ्र्य जीव मात्र का पालन-पोषण कर्ता बनूं।
परमात्मा ‘सवितु:’ है अर्थात सृष्टि की रचना, पालन तथा प्रलयकर्ता है। मैं भी कल्याणकारी कर्मों का विस्तार अर्थात लोकोपकार में अनाथ आश्रम, धर्मशाला,जलाशय आदि का निर्माण तथा उनका उचित रख-रखाव की व्यवस्था करूं और अकल्याणकारी कर्मों का, रीति-रिवाजों आदि का प्रलय (संहार) करूं।
परमात्मा ‘वरेण्यं’ अर्थात ग्रहण करने योग्य है, अत: स्वयं मैं ऐसे गुणों का निर्माण करूं, ऐसे चाल-चलन आदि को धारण करूं कि अन्य मनुष्य भी मुझसे प्रभावित होकर मेरे गुणों,कर्मों तथा स्वभावों का अनुसरण कर अपने को धन्य मानें।
परमात्मा ‘भर्ग:’ अर्थात शुद्ध स्वरूप और पवित्र है, अत: मैं भी अपनी कुवासनाओं को
मूल सहित नष्ट कर तथा अन्त:करण को ईष्र्या,द्वेष, लोभ,मोह आदि से शून्य कर शुद्ध और पवित्र करूं।
परमात्मा ‘देवस्य’ अर्थात् सब को सुखों को देने वाला है, अत: मैं भी उसके सदृश्य यथा सम्भव प्राणीमात्र को अपने स्व कार्यों के द्वारा सुखों का देने वाला बनूं।
अत: परमात्मा के सच्चे साधक (पूजक) और उसे प्राप्त करने वाले आकांक्षी को उचित है कि उपर्युक्त भौतिक गुणों को अर्थात् परमात्मा के उपर्युक्त गुण,कर्म और स्वभाव को अपने अन्त:करण में धारण और उन्हें दैनिक व्यवहार तथा चाल चलने में ढाल अर्थात तद्रूप अपने दैनिक जीवन में कार्य रूप मेें परिणित कर, अन्त में ‘धीमहि’ मैंने इन्हें धारण किया है का उद्घोष करें।
उपासना विधि
गायत्री मन्त्र द्वारा परमात्मा की उपासना अर्थात् ब्रह्मयज्ञ के साधक को आवश्यक है कि एक घड़ी रात्रि रहने पर निद्रा को त्याग,शौच,स्नान आदि द्वारा शरीर को बाहरी शुद्धता धारण कर, एकान्त स्थान में आसन बिछाकर, आसन पर इस प्रकार से बैठें कि बैठने में सुविधा रहे और बार-बार हिलना-डुलना या आसन न बदलना पड़े।
तत्पश्चात् शरीर के किसी भी स्थान जैसे भृकुटि, गले या हृदय प्रदेश में मन को स्थिर कर, एकाग्र चित्त होकर, जीभ को तालु से सटाकर, हृदय ही हृदय में कण्ठ के द्वारा गायत्री मन्त्र का जाप करें। मुंह से शब्दों का उच्चारण न करें। मन ही मन, प्रत्येक शब्द के अर्थ का विचार करते हुए शान्त चित्त हो बार-बार गायत्री मन्त्र का जाप सुविधानुसार समय तक करें।
गायत्री जाप के मध्य जपकर्ता चित्त की चञ्चलता अर्थात मन को इधर-उधर के विषयों में जाने से पुन: पुन: रोक कर, उसे नियंत्रण में कर, स्थिर रखने का प्रयत्न निरन्तर करता रहे। चित्त की वृत्तियों को ‘बाह्यमुखी’ होने से रोककर, भीतर आत्मा की ओर खीचें अर्थात् उन्हें ‘केन्द्रोमुखी’ बना परमात्मा के गुणों के चिन्तन में स्थिर तथा एकाग्र करें।
चित्त की वृत्तियों के स्थिर तथा एकाग्र चित्त होने पर आत्मा तथा परमात्मा की संलग्नता प्राप्त होगी, उपासक का रोम-रोम अपने उपास्य (परमात्मा) के स्वरूप अर्थात् उसक अनन्त आनन्द
की अनुभूति प्राप्त कर कृत-कृत हो जायेगा। चित्त की वृत्तियों का एकाग्र होकर स्थिर होना ही ‘योग’ है। महर्षि पातञ्जलि ने योग दर्शन में कहा भी है-
‘योगश्चित्तवृत्ति निरोध:’ अर्थात चित्त की वृत्तियों को रोक देना ही योग कहलाता है।
उपर्युक्त स्थित का प्राप्त होना अनायास नहीं हा सकता। अपितु इसे प्राप्त करने हेतु धैर्य रखना आवश्यक है। धैर्य पूर्वक अखण्ड (बिना क्रम टूटे) दैनिक अभ्यास ही इस स्थिति को प्राप्त करा सकता है। प्रारम्भ में उपासक को यह कुछ कष्टदायक प्रतीत हो सकता है। परन्तु स्मरण रहे कि जो कार्य प्रारम्भ में कष्टदायक होते हैं,परिणाम में अत्यन्त सुखदायी होते हैं। कहा भी गया है कि
धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय।
माली सींचे सौ गुना, ऋ तु आए फल होय।।
गायत्री मंत्र से मिलने वाले लाभ
‘ब्रह्मयज्ञ’ अर्थात गायत्री मन्त्र के जाप के माध्यम से ‘देव पूजा’-यज्ञ का प्रथम अंग है। गायत्री मन्त्र के जाप का अपना महत्व है और इससे होने वाले लाभ हैं1. लोक सुधार, 2. परलोक का सुधार, 3. जीवन का मर्यादित होना और 4. उपास का योग की स्थिति की ओर अग्रसरता अर्थात् बढऩा।
1.लोक सुधार- संसार में जीवन को सुखी तथा सम्मान पूर्वक व्यतीत करने के लिए आवश्यक हे कि मनुष्य का अन्त:करण (मन,चित्त,बुद्धि तथा अहंकार, ममत्व का भाव) ‘समत्व’ की भावना से ओत-प्रोत हो अर्थात अन्त:करण में प्राणी मात्र के प्रति दया,ममता तथा करुणा का भाव हो। इस भाव को गायत्री मन्त्र के जाप से उपासक सहज में ही प्राप्त कर सकता है।
उपासना के मध्य गायत्री मन्त्र के प्रत्येक शब्द के अर्थ युक्त जाप तथा चिन्तन से चित्त तथा मन की वृत्तियां स्थूल शरीर के अन्दर व्यापक ‘आत्मा’ तथा ‘परमात्मा’ की ओर उन्मुख हो ‘केन्द्रोमुखी’ बनती है। उपासक के अन्त:करण में यह भाव जागृत होता है कि मैं मात्रशरीर नहीं
हूं, अपितु चेतन आत्मा हूं। संसार में मेरा उतना ही सम्बन्ध है जितना कि मेरे जीवन के लिए उपयोगी है।
परिणामस्वरूप उपासक शरीर को ही सब कुछ न मानकर दुष्कर्मों को करने से बचकर, गायत्र मन्त्र की भावना के हृदयंगम होने से प्राप्त अन्त:करण की शुद्धता तथा पवित्रता के वशीभूत हो,शुद्ध और पवित्र आचरण तथा शुभकर्मों के अनुष्ठानों से अपनी विशेष छवि का निर्माण करता है। उसका सभी प्राणियों के प्रति सरल,पवित्र,निष्काम भावना तथा न्याय से युक्त व्यवहार हाता है। जो भी उसके सम्पर्क में आता है,उससे प्रभावित हो उसका सम्मान करता है। इससे उसे लोकप्रियता हासिल होती है। संसार में कीर्ति,यश तथा सम्मान प्राप्त होना ही लोक सुधार है।
2.परलोक सुधार-ब्रह्मयज्ञ अर्थात गायत्री मन्त्र जाप से उपासक (साधक) के अन्त:करण के पवित्र होने से उसका प्रत्येक कर्म तथा कार्यकलाप निष्काम लोकहितकारी शुभकर्म बन उसके ‘सूक्ष्म शरीर’ पर शुभ कर्मों के ‘बीजों’ को स्थिर करता है। परिणाम में उपासक जन्म-जन्मान्तर में सुख तथा आनन्द प्राप्त करता है। इसी को परलोक का सुधार कहा जाता है।
3.जीवन का मर्यादित होना- उपासक द्वारा गायत्री मन्त्र की उपासना के मध्य अर्थ चिन्तन युक्त जाप तथा निदिध्यासन (तद्नुसार परमात्मा के गुणों को धारण करना) उसे मर्यादाओं से बाहर नहीं जाने देता। चित्त की वृत्तियां आत्मा तथा परमात्मा की ओर खिंची रहतीं हैं अर्थात् उपासक का अन्त:करण आत्मा की ओर केन्द्रित हो ‘केन्द्रोमुखी’ बन जाता है। उपासक सांसारिक कार्यों में लगा रह कर भी, आत्मा तथा परमात्मा को न भूलकर दैनिक कार्यकलापों को ‘मर्यादित’ कर संसार में सरल तथा सुखद जीवन व्यतीत करता है।
अमर्यादित जीवन ‘बिना खूंटे के बैल’ के समान है, जो कि गले में बंधी रस्सी और खूंटे को व्यर्थ का बन्धन समझता है। परन्तु उसे यह ज्ञात नहीं है कि रस्सी का बंधन उसको सुरक्षित स्थान से दूर नहीं जाने देता। खूंटे से दूर जाना जंगलों में जा भेडिय़ा आदि हिंसक पशुओं का शिकार होना है। सुख और सुरक्षा जब तक ही है, जब तक वह खूंटे से बंध एक निश्चित क्षेत्र में विचरता है। इसी प्रकार ‘मर्यादित’ जीवन जीवने वाला मनुष्य सांसारिक कार्यांे में लगा हुआ भी आत्मा तथा परमात्मा को न भूलकर शुभकर्म का अनुष्ठान कर सुख तथा आनन्द भोगता है।
4. योगस्थिति की ओर अग्रसरता-गायत्री मन्त्र को एकाग्र चित्त जाप की उपासना के मध्य अर्थ चिन्तन करने से उपासक, निष्ठा,धैर्य तथा अनवरत प्रयास से योग की स्थिति की ओर अग्रसर हो सकता है अर्थात बढ़ सकता है।
गायत्री मन्त्र
ओ३म् भूर्भुव: स्व:। तत् सवितुर्वरेण्यम् भर्गो देवस्य धीमहि।
धियो यो न: प्रचोदयात्।। (यजुर्वेद अ.३६-मं.३)
ओ३म परमात्मा का मुख्य नाम (भू:) प्राणाधार (भुव:) दुख विनाशक (स्व:) सर्वव्यापक तथा धारणकर्ता (सवितु:) सृष्टि उत्पादक पालन कर्ता तथा प्रलयकर्ता (वरेण्य) ग्रहण करने योग्य (भर्ग:) शुद्ध स्वरूप तथा पवित्र कर्ता (देवस्य) सब सुखों का दाता (तत्) तेरे इस स्वरूप को (धीमहि) धारण करें (य:) हे देव परमात्मा (न:) हमारी (धिय:) बुद्धियों को (प्रचोदयात) प्रेरणा करें अर्थात बुरे कामों से छुड़ा कर अच्छे कामों में प्रवृत करे।
गायत्री मंत्र का स्तुति भाग
मंत्र की तीन व्याहृतियां (भू:, भुर्व: स्व:) तथा प्रथम पाद के चार अक्षर (तत् सवितुर्वरेण्यम, भर्गो देवस्य) परमात्मा की स्तुति अर्थात उसके गुणों का स्मरण कराते हैं। गुणों के चिन्तन से अन्त:करण में परमात्मा के प्रति श्रद्धा तथा प्रेम उत्पन्न होता है।
गायत्री मंत्र में प्रार्थना भाग
मंत्र का द्वितीय पाद (धियो यो न: प्रचोदयात) प्रार्थना अंग है। अर्थात हे! परमात्मा हमारी बुद्धियों को प्रेरणा कर कि हम पापों को त्याग शुभ कर्म करेंं।
गायत्री मंत्र का उपासना अंग
प्रथम पाद का ही अन्तिम शब्द ‘धीमहि’ मंत्र का उपासना अंग है जिसका अर्थ है कि मैं परमात्मा को धारण अर्थात् उसके गुण,कर्म और स्वभाव के सदृश्य अपने गुण,कर्म और स्वभाव
का निर्माण कर उसके समीपस्थ होता हूं।
गायत्री मन्त्र की जाप विधि
गायत्री मंत्र से परमात्मा की पूजा (उपासना) तथा साधना के लिए आवश्यक है कि मंत्र के प्रत्येक शब्द का अर्थ और उसकी भावना को,साधक अपने अन्त:करण में धारण करें तथा की गई प्रार्थना के अनुसार अपने गुण,कर्म और स्वभाव का निर्माण करें। जैसे परमात्मा का नाम ‘ओ३म्’ है अर्थात परमात्मा विराट् तथा अग्नि स्वरूप है, अत: मैं भी अपने हृदय को संकुचित न बनाकर उसे विराट् अर्थात विशाल बनाऊं, परमात्मा अग्नि स्वरूप है अत: मेरा भी अन्त:करण उपस्थित अग्नि में जल कर भस्म हो जावे।
परमात्मा ‘भू:’ अर्थात प्राणी का आधार है,मैं भी किसी जीव की हत्या आदि न करूं और यदि मनुष्यादि किसी भी जीव के प्राणों पर संकट आया हो, तो यथा सामथ्र्य उसके प्राणों की रक्षा करूं।
परमात्मा ‘भुव:’ अर्थात दु:खों का विनाशक है, मैं भी उसके अनुरूप यथा-संभव मनुष्यादि प्राणी मात्र के दु:खों का विनाश अर्थात दु:खों को कम या उन्हें समाप्त करूं।
परमात्मा ‘स्व:’ अर्थात सर्वव्यापक एवं सबका धारणकर्ता है। अत: मैं भी परमार्थ परोपकार और व्यवहार के द्वारा लोकप्रिय बन,सबके अन्त:करण में अपना स्थान स्थापित करूं तथा यथा सामथ्र्य जीव मात्र का पालन-पोषण कर्ता बनूं।
परमात्मा ‘सवितु:’ है अर्थात सृष्टि की रचना, पालन तथा प्रलयकर्ता है। मैं भी कल्याणकारी कर्मों का विस्तार अर्थात लोकोपकार में अनाथ आश्रम, धर्मशाला,जलाशय आदि का निर्माण तथा उनका उचित रख-रखाव की व्यवस्था करूं और अकल्याणकारी कर्मों का, रीति-रिवाजों आदि का प्रलय (संहार) करूं।
परमात्मा ‘वरेण्यं’ अर्थात ग्रहण करने योग्य है, अत: स्वयं मैं ऐसे गुणों का निर्माण करूं, ऐसे चाल-चलन आदि को धारण करूं कि अन्य मनुष्य भी मुझसे प्रभावित होकर मेरे गुणों,कर्मों तथा स्वभावों का अनुसरण कर अपने को धन्य मानें।
परमात्मा ‘भर्ग:’ अर्थात शुद्ध स्वरूप और पवित्र है, अत: मैं भी अपनी कुवासनाओं को
मूल सहित नष्ट कर तथा अन्त:करण को ईष्र्या,द्वेष, लोभ,मोह आदि से शून्य कर शुद्ध और पवित्र करूं।
परमात्मा ‘देवस्य’ अर्थात् सब को सुखों को देने वाला है, अत: मैं भी उसके सदृश्य यथा सम्भव प्राणीमात्र को अपने स्व कार्यों के द्वारा सुखों का देने वाला बनूं।
अत: परमात्मा के सच्चे साधक (पूजक) और उसे प्राप्त करने वाले आकांक्षी को उचित है कि उपर्युक्त भौतिक गुणों को अर्थात् परमात्मा के उपर्युक्त गुण,कर्म और स्वभाव को अपने अन्त:करण में धारण और उन्हें दैनिक व्यवहार तथा चाल चलने में ढाल अर्थात तद्रूप अपने दैनिक जीवन में कार्य रूप मेें परिणित कर, अन्त में ‘धीमहि’ मैंने इन्हें धारण किया है का उद्घोष करें।
उपासना विधि
गायत्री मन्त्र द्वारा परमात्मा की उपासना अर्थात् ब्रह्मयज्ञ के साधक को आवश्यक है कि एक घड़ी रात्रि रहने पर निद्रा को त्याग,शौच,स्नान आदि द्वारा शरीर को बाहरी शुद्धता धारण कर, एकान्त स्थान में आसन बिछाकर, आसन पर इस प्रकार से बैठें कि बैठने में सुविधा रहे और बार-बार हिलना-डुलना या आसन न बदलना पड़े।
तत्पश्चात् शरीर के किसी भी स्थान जैसे भृकुटि, गले या हृदय प्रदेश में मन को स्थिर कर, एकाग्र चित्त होकर, जीभ को तालु से सटाकर, हृदय ही हृदय में कण्ठ के द्वारा गायत्री मन्त्र का जाप करें। मुंह से शब्दों का उच्चारण न करें। मन ही मन, प्रत्येक शब्द के अर्थ का विचार करते हुए शान्त चित्त हो बार-बार गायत्री मन्त्र का जाप सुविधानुसार समय तक करें।
गायत्री जाप के मध्य जपकर्ता चित्त की चञ्चलता अर्थात मन को इधर-उधर के विषयों में जाने से पुन: पुन: रोक कर, उसे नियंत्रण में कर, स्थिर रखने का प्रयत्न निरन्तर करता रहे। चित्त की वृत्तियों को ‘बाह्यमुखी’ होने से रोककर, भीतर आत्मा की ओर खीचें अर्थात् उन्हें ‘केन्द्रोमुखी’ बना परमात्मा के गुणों के चिन्तन में स्थिर तथा एकाग्र करें।
चित्त की वृत्तियों के स्थिर तथा एकाग्र चित्त होने पर आत्मा तथा परमात्मा की संलग्नता प्राप्त होगी, उपासक का रोम-रोम अपने उपास्य (परमात्मा) के स्वरूप अर्थात् उसक अनन्त आनन्द
की अनुभूति प्राप्त कर कृत-कृत हो जायेगा। चित्त की वृत्तियों का एकाग्र होकर स्थिर होना ही ‘योग’ है। महर्षि पातञ्जलि ने योग दर्शन में कहा भी है-
‘योगश्चित्तवृत्ति निरोध:’ अर्थात चित्त की वृत्तियों को रोक देना ही योग कहलाता है।
उपर्युक्त स्थित का प्राप्त होना अनायास नहीं हा सकता। अपितु इसे प्राप्त करने हेतु धैर्य रखना आवश्यक है। धैर्य पूर्वक अखण्ड (बिना क्रम टूटे) दैनिक अभ्यास ही इस स्थिति को प्राप्त करा सकता है। प्रारम्भ में उपासक को यह कुछ कष्टदायक प्रतीत हो सकता है। परन्तु स्मरण रहे कि जो कार्य प्रारम्भ में कष्टदायक होते हैं,परिणाम में अत्यन्त सुखदायी होते हैं। कहा भी गया है कि
धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय।
माली सींचे सौ गुना, ऋ तु आए फल होय।।
गायत्री मंत्र से मिलने वाले लाभ
‘ब्रह्मयज्ञ’ अर्थात गायत्री मन्त्र के जाप के माध्यम से ‘देव पूजा’-यज्ञ का प्रथम अंग है। गायत्री मन्त्र के जाप का अपना महत्व है और इससे होने वाले लाभ हैं1. लोक सुधार, 2. परलोक का सुधार, 3. जीवन का मर्यादित होना और 4. उपास का योग की स्थिति की ओर अग्रसरता अर्थात् बढऩा।
1.लोक सुधार- संसार में जीवन को सुखी तथा सम्मान पूर्वक व्यतीत करने के लिए आवश्यक हे कि मनुष्य का अन्त:करण (मन,चित्त,बुद्धि तथा अहंकार, ममत्व का भाव) ‘समत्व’ की भावना से ओत-प्रोत हो अर्थात अन्त:करण में प्राणी मात्र के प्रति दया,ममता तथा करुणा का भाव हो। इस भाव को गायत्री मन्त्र के जाप से उपासक सहज में ही प्राप्त कर सकता है।
उपासना के मध्य गायत्री मन्त्र के प्रत्येक शब्द के अर्थ युक्त जाप तथा चिन्तन से चित्त तथा मन की वृत्तियां स्थूल शरीर के अन्दर व्यापक ‘आत्मा’ तथा ‘परमात्मा’ की ओर उन्मुख हो ‘केन्द्रोमुखी’ बनती है। उपासक के अन्त:करण में यह भाव जागृत होता है कि मैं मात्रशरीर नहीं
हूं, अपितु चेतन आत्मा हूं। संसार में मेरा उतना ही सम्बन्ध है जितना कि मेरे जीवन के लिए उपयोगी है।
परिणामस्वरूप उपासक शरीर को ही सब कुछ न मानकर दुष्कर्मों को करने से बचकर, गायत्र मन्त्र की भावना के हृदयंगम होने से प्राप्त अन्त:करण की शुद्धता तथा पवित्रता के वशीभूत हो,शुद्ध और पवित्र आचरण तथा शुभकर्मों के अनुष्ठानों से अपनी विशेष छवि का निर्माण करता है। उसका सभी प्राणियों के प्रति सरल,पवित्र,निष्काम भावना तथा न्याय से युक्त व्यवहार हाता है। जो भी उसके सम्पर्क में आता है,उससे प्रभावित हो उसका सम्मान करता है। इससे उसे लोकप्रियता हासिल होती है। संसार में कीर्ति,यश तथा सम्मान प्राप्त होना ही लोक सुधार है।
2.परलोक सुधार-ब्रह्मयज्ञ अर्थात गायत्री मन्त्र जाप से उपासक (साधक) के अन्त:करण के पवित्र होने से उसका प्रत्येक कर्म तथा कार्यकलाप निष्काम लोकहितकारी शुभकर्म बन उसके ‘सूक्ष्म शरीर’ पर शुभ कर्मों के ‘बीजों’ को स्थिर करता है। परिणाम में उपासक जन्म-जन्मान्तर में सुख तथा आनन्द प्राप्त करता है। इसी को परलोक का सुधार कहा जाता है।
3.जीवन का मर्यादित होना- उपासक द्वारा गायत्री मन्त्र की उपासना के मध्य अर्थ चिन्तन युक्त जाप तथा निदिध्यासन (तद्नुसार परमात्मा के गुणों को धारण करना) उसे मर्यादाओं से बाहर नहीं जाने देता। चित्त की वृत्तियां आत्मा तथा परमात्मा की ओर खिंची रहतीं हैं अर्थात् उपासक का अन्त:करण आत्मा की ओर केन्द्रित हो ‘केन्द्रोमुखी’ बन जाता है। उपासक सांसारिक कार्यों में लगा रह कर भी, आत्मा तथा परमात्मा को न भूलकर दैनिक कार्यकलापों को ‘मर्यादित’ कर संसार में सरल तथा सुखद जीवन व्यतीत करता है।
अमर्यादित जीवन ‘बिना खूंटे के बैल’ के समान है, जो कि गले में बंधी रस्सी और खूंटे को व्यर्थ का बन्धन समझता है। परन्तु उसे यह ज्ञात नहीं है कि रस्सी का बंधन उसको सुरक्षित स्थान से दूर नहीं जाने देता। खूंटे से दूर जाना जंगलों में जा भेडिय़ा आदि हिंसक पशुओं का शिकार होना है। सुख और सुरक्षा जब तक ही है, जब तक वह खूंटे से बंध एक निश्चित क्षेत्र में विचरता है। इसी प्रकार ‘मर्यादित’ जीवन जीवने वाला मनुष्य सांसारिक कार्यांे में लगा हुआ भी आत्मा तथा परमात्मा को न भूलकर शुभकर्म का अनुष्ठान कर सुख तथा आनन्द भोगता है।
4. योगस्थिति की ओर अग्रसरता-गायत्री मन्त्र को एकाग्र चित्त जाप की उपासना के मध्य अर्थ चिन्तन करने से उपासक, निष्ठा,धैर्य तथा अनवरत प्रयास से योग की स्थिति की ओर अग्रसर हो सकता है अर्थात बढ़ सकता है।
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