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आत्मा-स्वभाव से पवित्र


जीव-शरीरस्थ व्यापक आत्मा स्वभाव से पवित्र है। आत्मा की शक्ति से ही जीवों का दिखनेवाला स्थूल शरीर क्रियाशील है। यह आत्मा सूक्ष्म से सूक्ष्मतर ,अविनाशी तथा शरीर की समस्त इन्द्रियों का स्वामी है। इन्द्रियां तभी तक कार्य करती हैं,जब तक आत्मा शरीर में है। शरीर और शरीर के साथ समस्त इन्द्रियां नाशवान हैं,परन्तु आत्मा अनिद्यमान अर्थात नष्ट न होने वाली अविनाशी है। आत्मा नित्य अर्थात सदैव रहने वाली है।
गीता में श्रीकृष्ण ने कहा है-
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावक:
न चैनं क्लेदन्त्यापो न शोषयति मारुत:।।
(श्रीमद्भगवद्गीता अ. २-श्लोक 23)
इस आत्मा को शस्त्र नहीं काट सकते, इसको आग नहीं जला सकती, इसको जल नहीं गला सकता और वायु सुखा नहीं सकती। इस अविनाशी आत्मा का स्वामी परमात्मा है। वेद में भी कहा गया है-
अग्ने घृतव्रताय ते समुद्रायेव सिन्धव:। गिरो वाश्रास ईरते।।
(ऋग्वेद मण्डल ८-सूक्त 44-मंत्र २५)
अर्थात यह शरीरस्थ जीवात्मा ईश्वर का सखा और सेवक है। यह अपने स्वामी का

महान ऐश्वर्य चिरकाल से देख रहा है, यद्यपि शरीरबद्ध होने से कुछ काल के लिए स्वामी
से विमुख हो रहा है। इसकी स्वाभाविक गति ईश्वर की ओर ही है, जैसे नदियों की गति समुद्र की ओर होती है।
शास्त्रों में ऋषियों ने कहा भी है कि हे मनुष्यों ! तुम शरीर मात्र नहीं हो,तुम आत्मा हो। शरीररूपी रथ का आत्मा रथी है। बुद्धि और ज्ञान कोचवान,मन लगाम,शरीर की दस इन्द्रियां (पांच ज्ञानेन्द्रियां -कान,त्वचा,आंख,जिव्हा और नाक, पांच कर्मेन्द्रियां-वाणी,हाथ-पैर गुदा और उपस्थ)रथ के घोड़े और इन्द्रियों के भोग, इनका भोजन यानी घास है।
शरीर आत्मा का भोग स्थूल है अर्थात जन्म-जन्मान्तर में कृत पुण्य और पापों के कर्मफल भोगने का माध्यम है। जब बुद्धि ज्ञान के प्रकाश से आलोकित हो जाती है और मनुष्य इसके प्रकाश में शुभ कर्म कर इस आत्मा को शुद्ध और निर्मल कर, पुण्यों से संस्कारित कर लेता है, तो आत्मा इस शरीर के माध्यम से सुख शान्ति तथा आनन्द प्राप्त कर अन्त में संचित शुभ कर्मों के प्रभाव से अपने स्वामी यानी परमात्मा के सानिध्य में विचरती है। यही आत्मा की मुक्ति का स्वरूप है।
परन्तु इसके विपरीत जब मनुष्य अज्ञान के अन्धकार में डूब जाता है तो शरीर रूपी रथ का बुद्धि रूप कोचवान, ज्ञान से रहित और अज्ञान से ग्रसित हो,संसार के अस्थाई आनन्द को सदैव रहने वाला समझ शरीर को ही सब कुछ मान कर आमोद-प्रमोद को ही जीवन को परम लक्ष्य जान और मान,विलास में लिप्त होकर,मदहोश शराबी की भांति शरीर और मन पर से नियंत्रण खो बैठता है। जैसे कोचवान के मदहोश होने पर लगाम से उसका नियंत्रण समाप्त होकर घोड़ों की लगाम ढीली हो जाती है। लगाम के ढीले होते ही रथ में जुते घोड़े स्वच्छन्द हो,निर्धारित मार्ग को छोड़ ,मार्ग से भटक, जहां-तहां,इधर-उधर सरपट दौड़ लगाते हैं और मार्ग में आने वाले खार,खण्डों,रोड़े, पत्थरों आदि से न बच कर उनसे ठोकर खा,खाकर-खण्डों में गिर,रथी और स्वयं के हाथ-पैर तुड़वा कर विनाश को प्राप्त होते हैं। उसी प्रकार ज्ञान से रहित मनुष्य की बुद्धि अज्ञान से ग्रसित होकर, मन से नियंत्रण खो बैठती है। मनुष्य मन पर से नियंत्रण खो,इन्द्रियों के वशीभूत हो, इन्द्रियों को उनके निर्धारित

विषयों को भोग भोगने के लिए स्वतन्त्र छोड़ देता है। वह भोग भोगने के पदार्थों और साधनों के उपलब्धता के लिए नैतिकता-अनैतिकता,धर्म-अधर्म, उचित-अनुचित और बुरे या भले का विचार छोड़, दुष्कर्मों के द्वारा अपनी आत्मा को पापों से संस्कारित, अपवित्र तथा मलिन कर बैठता है। परिणाम स्वरूप वर्तमान शरीर की मृत्यु के उपरान्त आत्मा जन्म-जन्मान्तरों में नाना प्रकार की योनियों को प्राप्त कर घोर पीड़ा,रोग,शोक और दु:ख भोगती है।
स्पष्ट है कि ज्ञान का मनुष्य जीवन में एक महत्वपूर्ण स्थान है। व्यवहारिक और आध्यात्मिक ज्ञान के द्वारा वह अपना इहलोक तथा परलोक अर्थात वर्तमान लोक तथा मृत्यु उपरान्त कर्मफलों के वश प्राप्त होने वाले जन्मों को सुखद तथा दु:खों से रहित बन सकता है। संक्षिप्त में कहा जा सकता है-‘ज्ञान ही जीवन और अज्ञान मृत्यु है’।

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