शारीरिक,मानसिक तथा सामाजिक उन्नति
1. यज्ञ के अनुष्ठाान अर्थात याज्ञिक कर्मों के करने से त्याग की भावना का उदय तथा सत्व गुणों की वृद्धि होकर अन्त:करण पवित्र होता है अर्थात मन,बुद्धि,चित्त आदि की शुद्धि और इनकी शुद्धि से दुव्र्यसनों का नाश होकर भद्र यानी कल्याणकारी स्वभाव का निर्माण हो, मन को उत्तम कर्म करने की प्रेरणा मिलती है। परिणामस्वरूप मन, बु।ि और चित्त प्रसन्नता से भरपूर हो जाता है। फलत: शारीरिक स्वास्थ्य में वृद्धि होती है और अन्त:करण की पवित्रता से मानसिक उन्नति होती है।
2. ‘यज्ञ’ अर्थात लोकोपकारी कर्मों के अनुष्ठान से समाज और लोक में अभाव नष्ट होकर समरसता की स्थापना होती है तथा समाज कुंठा और हीन भावना से मुक्त होता है। प्रत्येक
वर्ग में भाई चारा और सहृदयता की स्थापना होकर, समाज के सभी अंग एक साथ मिलकर
बुराइयों को दूर छिटका कर, आपसी दुर्भावनाओं को त्याग समता की भावनाओं से युक्त हो विकास की ओर अग्रसर होकर उन्नति कर सभी क्षेत्रों में सुख तथा आनन्द प्राप्त करते हैं।
3. ‘यज्ञ’ वह धर्मडाढ़ है जो कि मनुष्य को उसके कर्तव्य कर्म का बोध प्रदान कराती है।
प्राप्त ‘बोध’ मनुष्य को उसके कर्तव्य कर्मों का अनुष्ठान कर्ता बना उसके स्वभाव में सरलता, दया तथा करुणा के दिव्य भावों की स्थापना करता है। परिणामस्वरूप मनुष्य निर्मित स्वभाव के अनुकूल कार्य करने से समाज में आदर, सत्कार तथा सम्मान को प्राप्त कर लोकप्रिय बन जाता है।
1. यज्ञ के अनुष्ठाान अर्थात याज्ञिक कर्मों के करने से त्याग की भावना का उदय तथा सत्व गुणों की वृद्धि होकर अन्त:करण पवित्र होता है अर्थात मन,बुद्धि,चित्त आदि की शुद्धि और इनकी शुद्धि से दुव्र्यसनों का नाश होकर भद्र यानी कल्याणकारी स्वभाव का निर्माण हो, मन को उत्तम कर्म करने की प्रेरणा मिलती है। परिणामस्वरूप मन, बु।ि और चित्त प्रसन्नता से भरपूर हो जाता है। फलत: शारीरिक स्वास्थ्य में वृद्धि होती है और अन्त:करण की पवित्रता से मानसिक उन्नति होती है।
2. ‘यज्ञ’ अर्थात लोकोपकारी कर्मों के अनुष्ठान से समाज और लोक में अभाव नष्ट होकर समरसता की स्थापना होती है तथा समाज कुंठा और हीन भावना से मुक्त होता है। प्रत्येक
वर्ग में भाई चारा और सहृदयता की स्थापना होकर, समाज के सभी अंग एक साथ मिलकर
बुराइयों को दूर छिटका कर, आपसी दुर्भावनाओं को त्याग समता की भावनाओं से युक्त हो विकास की ओर अग्रसर होकर उन्नति कर सभी क्षेत्रों में सुख तथा आनन्द प्राप्त करते हैं।
3. ‘यज्ञ’ वह धर्मडाढ़ है जो कि मनुष्य को उसके कर्तव्य कर्म का बोध प्रदान कराती है।
प्राप्त ‘बोध’ मनुष्य को उसके कर्तव्य कर्मों का अनुष्ठान कर्ता बना उसके स्वभाव में सरलता, दया तथा करुणा के दिव्य भावों की स्थापना करता है। परिणामस्वरूप मनुष्य निर्मित स्वभाव के अनुकूल कार्य करने से समाज में आदर, सत्कार तथा सम्मान को प्राप्त कर लोकप्रिय बन जाता है।
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