आर्यावर्त और संध्योपासना एकदूसरे के पूरक हैं। एक के बिना दूसरा अधूरा है। इसलिए जहां आर्य शब्द आता है, वहां समझें कि इससे जुड़े व्यक्ति का परमकर्तव्य संध्योपासना है।
अब प्रश्न उठता है कि संध्योपासना क्या है? तो संध्योपासना शब्द स्वयं बताता है कि ध्यान, मानसिक एकाग्रता,मौन साधना यानी योग साधना से समाधि साधना के बीच की क्रिया को संध्योपासना कहते हैं। ध्यान,मानसिक एकाग्रता, मौन साधना यानी योग साधना प्रत्येक ग्रहस्थ एवं ब्रह्मचारी के लिए आवश्यक है किन्तु योग साधना और समाधि साधना वानप्रस्थी, संन्यासी एवं पूर्ण ब्रह्मचर्य व्रत का संकल्प लेने वाले व्यक्ति या संत-धर्मात्मा के लिए उपयुक्त है।
कहां और कैसे की जाए संध्योपासना
संध्या सदा एकांत तथा शांत वातावरण में करनी चाहिए,जहां मन स्थिर रह सके। संध्या में मन को एकाग्र का सबसे उत्तम उपाय उन मंत्रों के अदृश्य अर्थों पर अपने मन को लगाना है। अत: अर्थ की भावना करते हुए मंत्र का जप मन में करना चाहिए और अब कभी ऐसा प्रतीत हो कि मंत्र के जप के साथ अर्थ का बोध नहीं हो रहा तो समझना चाहिए कि मन नहीं लग रहा है। इसके लिए बार-बार प्रयास करते रहना चाहिए।
संध्या रात्रि और दिन की दोनों संधि बेलाओं में करनी चाहिए। इसके प्रारंभ करने से पूर्व भूमिका के रूप में तैयारी करने के लिए पहले स्नानादि द्वारा शरीर-शुद्धि तथा राग-द्वेष,चिंतादि सब दुर्भावनाओं से मन को मुक्त कर लेना चाहिए। यदि आलस्यादि आए तो मार्जन करें। तदनंतर मन को एकाग्र व शरीर में चेतना लाने के लिए कम से कम तीन प्राणायाम कर लें।
सर्वप्रथम गुरु मंत्र गायत्री मंत्र का जाप करके स्वयं को एकाग्र चित्त करें-
ओ३म् भूर्भुव स्व:। तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि।
धियो यो न: प्रचोदयात्।। यजु.अ.३६। मं. ३।।
गले के कफ आदि दोष को साफ करने के लिए सर्वप्रथम दायीं हथेली में जल लेकर इस मंत्र से तीन आचमन करें:-
ओ३म शन्नो देवीरभिष्टयऽआपो भवन्तु पीतये।
शंयोरभिस्त्रवन्तु न:।। यजु.अ.३६। मं. १२।।
इसके बाद परमात्मा से अंगों में शक्ति की प्रार्थना करते हुए इन मंत्रों से केवल मध्यमा और अनामिका अंगुलियों से जल स्पर्श करके अपने विभिन्न अंगों का यथाक्रम स्पर्श करें।
मुख का पहले दायां और फिर बायां भाग इस मंत्र ‘ओ३म वाक् वाक्’ कह कर स्पर्श करें।
नासिका का पहले दायां और फिर बायां भाग इस मंत्र ‘ओ३म प्राण: प्राण:’ कह कर स्पर्श करें।
नेत्रों में पहले दाईं और फिर बायीं नेत्र का यह मंत्र ‘ओ३म चक्षुश्चक्षु:’ कह कर स्पर्श करें।
दोनों कानों का पहले दायां और फिर बायां यह मंत्र ‘ओ३म श्रोत्रम् श्रोत्रम्’ कह कर स्पर्श करें।
यह मंत्र ‘ओ३म नाभिं:’ कह कर नाभि का स्पर्श करें।
तत्पश्चात यह मंत्र ‘ओ३म हृदयम्’ कह कर हृदय का स्पर्श करें।
‘ओ३म कण्ठ:’ कह कर गले का स्पर्श करें।
‘ओ३म शिर:’ कह कर सिर का स्पर्श करें।
‘ओ३म बाहुभ्यां यशोबलम्’ कह कर दोनों भुजाओं के मूल स्कंधों का स्पर्श करें।
‘ओ३म करतलकरपृष्ठे’ कह कर दोनों हथेलियों का स्पर्श करें।
मार्जन मंत्र
इसके बाद ‘ओ३म भू: पुनातु शिरसि’ (सिर पर), ‘ओ३म भुव: पुनातु नेत्रयो ’
(दोनों नेत्रों पर), ‘ओ३म स्व: पुनातु कण्ठे (गले पर), ‘ओ३म मह: पुनातु हृदये (हृदय पर), ‘ओ३म जन: पुनातु नाभ्याम्’ (नाभि पर) ‘ओ३म तप: पुनातु पाद्यो:’ (दोनों पैरों पर), ‘ओ३म सत्यं: पुनातु पुन: शिरसि’ (पुन: सिर पर),‘ओ३म खं ब्रह्म पुनातु सर्वत्र’ (समस्त अंगों पर) जल छिडक़ कर ईश्वर से शक्ति देने की प्रार्थना करते हुए मार्जन करें।
प्राणायाम मंत्र
ओ३म् भू:। ओ३म् भुव:। ओ३म् स्व:। ओ३म् मह:।
ओ३म् जन:। ओ३म् तप:। ओ३म् ं सत्यम।। तैत्ति. १०।२७।।
मार्जन मंत्र के पश्चात् इस मंत्र का जप करते हुए पूर्ण विधि-विधान से कम से कम तीन प्राणायाम करें। नाभि के नीचे से मूलेंद्रिय के ऊपर संकोच करके हृदय के वायु अंदर लेके अंदर ही थोड़ा सा रोकें। इस प्रकार यह एक ही प्राणायाम हुआ।
इस प्रकार अर्थ-चिंतनपूर्वक प्राणायाम करने के पश्चात् सृष्टि रचना की भावना द्वारा परमेश्वर की स्तुति करते हुए तथा पाप न करने का संकल्प करते हुए निम्न अघमर्षण मंत्र पढ़ें।
ओ३म् ऋतं च सत्यंञचाभीद्धात्तपसोऽध्यजायत।
तत्रो रात्र्य जायत तत: समुद्रो अर्णव:।।
ओ३म् समुद्रादणवादधि संवत्सरों अजायत।
अहो रात्राणि विदधद्विश्वस्य मिषतो वशी।।
ओ३म् सूर्याचन्द्रमसौ धाता याथापूर्वमकल्पयत् ।
दिवं च पृथिवीं चान्तरक्षिमथो स्व:।।
ऋग्वेद मं. 10 सूक्त १९०
इस प्रकार पापानुष्ठान के सर्वथा परित्याग का संकल्प करने के पश्चात् आचमन मंत्र से आचमन करें।
ओ३म शन्नो देवीरभिष्टयऽआपो भवन्तु पीतये। शंयोरभिस्त्रवन्तु न:।।
तदनंतर ‘मनसा परिक्रमा’ के मंत्रों से सर्वत्र सर्व शक्तिमान,न्यायकारी,दयालु पिता के समान पालन करने वाले रक्षक परमेश्वर का ध्यान करते हुए अपने मन में दृढ़ आस्तिकता और शक्ति को उत्पन्न करें।
ओ३म् प्राची दिगग्निरधिपतिरसितो रक्षितादित्या इषव:।
तेभ्यो नमोऽधिपतिभ्यो नमो रक्षितभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु।
यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्म:।।१।।
अथर्व.काण्ड ३ सू.२७ मं. १
जिस ओर सूर्य उदित होता है व प्राची दिशा है। यानी पूर्व की दिशा को प्राची दिशा कहते हैं। इस दिशा का स्वामी ज्ञान स्वरूप बंधनरहित परमात्मा हमारा रक्षक हो। वह परमात्मा किरणों व प्राणरूप साधनों से समस्त संसार की रक्षा करता है। उन इन इंद्रियों के अधिपति रूप शरीर की रक्षा करने वाले प्राणों की बारंबार स्तुति करता हूं। जो कोई हमसे अज्ञानवश द्वेष करता हो और जिससे हम द्वेष करते हैं, उसे हम आपके न्यायरूपी सामथ्र्य पर छोड़ते हैं, साथ ही प्रार्थना करते हैं किवह अनर्थ से दूर होकर हमारा मित्र बने और हम उसके मित्र बनें।
ओ३म् दक्षिणा दिगिन्द्रोऽधिपतिस्तिरश्चिराजी रक्षिता पितर इषव:।
तेभ्यो नमोऽधिपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्योअस्तु।
यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्म:।। २।।
अथर्व.काण्ड ३ सू.२७ मं. २
दक्षिण दिशा का स्वामी परमैश्वर्ययुक्त समस्त चराचर प्राणियों में प्रकाशमान परमात्मा हमारी रक्षा करने वाला हो। वह परमात्मा ज्ञानी सत्य विद्या प्रकाशक विद्वान रूप साधनों से समस्त संसार की रक्षा करता है। उन सत्य विद्याओं के स्वामी सत्यज्ञान से मनुष्यता के रक्षक प्रकाशमय विद्वानों की हम बारंबार स्तुति करते हैं। जो कोई हमसे अज्ञानवश द्वेष करता हो और जिससे हम द्वेष करते हैं, उसे हम आपके न्यायरूपी सामथ्र्य पर छोड़ते हैं, साथ ही प्रार्थना करते हैं कि वह अनर्थ से दूर होकर हमारा मित्र बने और हम उसके मित्र बनें।
ओ३म् प्रतीची दिग्वरुणोऽधिपति: पृदाकू रक्षितान्न मिषव:।
तेभ्यो नमोऽधिपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्योअस्तु।
यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्म:।। ३।।
अथर्व.काण्ड ३ सू.२७ मं. 3
पश्चिम दिशा का स्वामी सर्वोत्तम सबसे स्वीकरणीय सर्वज्ञ परमात्मा हमारा रक्षक हो। वह परमात्मा भोग रूप साधनों से सब संसार की रक्षा करता है। उन सुख के स्वामी जीवन के रक्षक समस्त भोगों की बारंबार स्तुति करते हैं। जो कोई हमसे अज्ञानवश द्वेष करता हो और जिससे हम द्वेष करते हैं, उसे हम आपके न्यायरूपी सामथ्र्य पर छोड़ते हैं, साथ ही प्रार्थना करते हैं कि वह अनर्थ से दूर होकर हमारा मित्र बने और हम उसके मित्र बनें।
ओ३म् उदीची दिक् सोमोऽधिपति: स्वजो रक्षिताऽशनिरिषव:।
तेभ्यो नमोऽधिपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्योअस्तु।
यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्म:।। ४।।
अथर्व.काण्ड ३ सू.२७ मं. ४
उत्तर दिशा का स्वामी समस्त जगत को उत्पन्न करने वाला न्यायकारी परमात्मा हमारा रक्षक हो। वह परमात्मा दंड रूप साधनों से समस्त संसार की न्यायपूर्वक रक्षा करता है। उन न्याय के स्वामी पापों से रक्षा करने वाले दण्ड-रूप साधनोंं की हम बारंबार स्तुति करते हैं। जो कोई हमसे अज्ञानवश द्वेष करता हो और जिससे हम द्वेष करते हैं, उसे हम आपके न्यायरूपी सामथ्र्य पर छोड़ते हैं, साथ ही प्रार्थना करते हैं कि वह अनर्थ से दूर होकर हमारा मित्र बने और हम उसके मित्र बनें।
ओ३म् ध्रुवा दिग्विष्णुरधिपति: कल्माषग्रीवो रक्षिता वीरुध इषव:।
तेभ्यो नमोऽधिपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्योअस्तु।
यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्म:।। ५।।
अथर्व.काण्ड ३ सू.२७ मं. ५
नीची दिशा का स्वामी सर्वव्यापक सत्कर्म की प्रतिपादिका वेदवाणी को देने वाला
परमात्मा हमारा रक्षक हो। वह पिता ज्ञानरूप साधनों से समस्त संसार की रक्षा करता है। उन इन समस्त चेतन प्राणियोंं के स्वामी अज्ञानांधकार से रक्षा करने वाले ज्ञान रूप साधनों की हम बारंबार स्तुतिकरते हैं। जो कोई हमसे अज्ञानवश द्वेष करता हो और जिससे हम द्वेष करते हैं, उसे हम आपके न्यायरूपी सामथ्र्य पर छोड़ते हैं, साथ ही प्रार्थना करते हैं कि वह अनर्थ से दूर होकर हमारा मित्र बने और हम उसके मित्र बनें।
ओ३म् ऊध्र्वा दिग्बृहस्पतिरधिपति: श्वित्रो रक्षिता वर्षमिषव:।
तेभ्यो नमोऽधिपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्योअस्तु।
यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्म:।। ६।।
अथर्व.काण्ड ३ सू.२७ मं. ६
ऊपर की दिशा का स्वामी महती वेदवाणी व वृहत् ब्रह्मांड का रक्षक परमात्मा हमारा रक्षक हो। वह परमात्मा आनंद रूप साधनों से समस्त संसार की रक्षा करता है। उन इन समस्त जीवों के स्वामी-जड़ता से रक्षा करने वाले आनंद रूप साधनों की हम बारंबार स्तुति करते हैं। जो कोई हमसे अज्ञानवश द्वेष करता हो और जिससे हम द्वेष करते हैं, उसे हम आपके न्यायरूपी सामथ्र्य पर छोड़ते हैं, साथ ही प्रार्थना करते हैं कि वह अनर्थ से दूर होकर हमारा मित्र बने और हम उसके मित्र बनें।
इस प्रकार छहों मनसा परिक्रमा के मंत्रों के अर्थ का ध्यान करते हुए जप करके सर्वशक्तिमान्, सर्वगुरु, न्यायकारी, दयालु पिता के समान पालन करने वाले, सब दिशाओं में और सब जगह रक्षा करने वाले परमेश्वर का ध्यान करें। तत्पश्चात् परमात्मशक्ति व उसके स्वरूप का अनुभव कर उसकी अमर गोद में बने रहने की प्रार्थना उपस्थान मंत्रों के माध्यम से करें। यह मंत्र इस प्रकार हैं-
ओ३म् उद्वयं तमसस्परि स्व: पश्यन्त उत्तरम्। देवं देवत्रा सूर्यमगन्म ज्योतिरुत्तमम्।। यजु.३५।१४।
हे परमात्मन् चराचर जगत् के आत्मा तुझको देखते हुए हम उत्कृष्ट श्रद्धावान होकर आपको प्राप्त हों। हे प्रभो, आप ही स्वप्रकाशस्वरूप सर्वोत्कृष्ट समस्त दित्यगुणयुक्त पदार्थों में
अनंत दिव्यगुण संपन्न धर्मात्मा और मुमुक्षुओं को सब प्रकार का आनंद देने वाले, जगत् में प्रलय के पश्चात् भी नित्यरूप में विराजमान सर्वानंदस्वरूप और अज्ञानांधकार से सर्वथा पृथक् बहुत दूर हो। प्रभो! आपकी कृपा से हम आपको प्राप्त कर सकें।
ओ३म् उदुत्यं जातवेदसं देवं वहन्ति केतव:। दृशे विश्वाय सूर्यम्।
यजु.३३।३१।
नाना प्रकार के संसार की रचना आदि के नियामक व प्रकाशक परमात्मा के गुण विश्व का ज्ञान प्राप्त करने के लिए उस समस्त चराचर जगत की आत्मा चारों वेदों के प्रकाशक और समस्त भूतों में विद्यमान दिव्यगुणयुक्त परमात्मा को सिद्ध करते हैं। इन रचनाओं को देखकर कोई नास्तिक भी ईश्वर का निषेध नहीं कर सकता।
ओ३म् चित्रं देवानामुदगादनीकं चक्षुर्मित्रस्य वरुणस्याग्ने:।
आप्रा द्यावापृथिवीऽअन्तरिक्ष सूर्यऽआत्मा जगतस्तस्थुषश्च स्वाहा।।
यजु.७।४२।
वही दिव्यगुणयुक्त सूर्य समस्त जंगम और स्थावर जगत् की आत्मा है। वही ईश्वर द्यू,पृथ्वी और अंतरिक्ष आदि समस्त संसार की रचना कर उसमें पूर्ण होकर उसकी रक्षा करता है। वहीे विज्ञानमय इन सबका प्रकाशक है। इसलिए सर्वथा द्रोह रहित मनुष्य समस्त श्रेष्ठ कर्माे में वर्तमान विद्वान् और सर्वप्रकाशक अग्नि का प्रकाश और सत्योपदेष्टा है। वह दिव्यगुणयुक्त विद्वानों के हृदय में ही उत्कृष्टरूप में प्रकाशित होता है। वह ब्रह्म अवर्णनीय और अद्भुत है। बस यही उसकी सबसे सुंदरतम स्तुति है।
ओ३म् तच्चक्षुर्देवहितं पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरत्।
पश्येम शरद: शतं जीवेम शरद: शतœशृणुयाम शरद:
शतम्प्रब्रवाम शरद: शतमदीना: स्याम शरद:
शतं भूयश्च शरद: शतात्।।
यजु.३६।२४।
जो सर्वदृष्टा दिव्यगुण वाले धर्मात्मा विद्वानों का हितकारी है। जो सृष्टि से पूर्व समस्त
जगत् का उत्पन्न करने वाला शुद्ध था। वह ब भी ऐसा है और आगे भी प्रलय के पश्चात् सर्वत्र व्याप्त विज्ञानस्वरूप व उत्कृष्ट सामथ्र्यवान रहेगा। उस परमात्मा को सौ वर्ष तक देखें। उसकी कृपा से सौ वर्ष तक प्राण-धारण करें। उसके गुणों में श्रद्धा और विश्वास रखते हुए उसकी ही सुनें। उस परमात्मा और उसके गुणों का सौ वर्ष तक उपदेश करेंं और उसकी कृपा से उसकी उपासना से, उसके विश्वास से हम सौ वर्ष तक अदीन रहें। कभी किसी के सामने दीन न बनें। सर्वदा परमात्मा की कृपा से हम स्वतंत्र बने रहें तथा उसके अनुग्रह से सौ वर्ष से भी अधिक समय तक जीवित रहते हुए हम उसके गुणों को सुनें और कहें।
इस प्रकार अत्यंत श्रद्धावन होकर स्तुति करते हुए परमात्मा का ध्यान करें। इसके बाद गुरु मंत्र गायत्री का पाठ करें-
ओ३म् भूर्भुव: स्व:। तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो न प्रचोदयात् ।।
अंत में परमात्मा में अटल श्रद्धा व विश्वास रखते हुए अपने आपको समर्पित करें। समर्पण के लिए यह मंत्र उच्चारें-
हे ईश्वर दयानिधे! भवत्कृपयानेन जपोपासनादिकर्मणा
धर्मार्थ काममोक्षाणां सद्य: सिद्धिर्भवेन्न:।
हे परमेश्वर दयानिधे! आपकी कृपा से जपोपासनादि कर्मों को करके हम धर्म,अर्थ,काम और मोक्ष-सिद्धि को शीघ्र प्राप्त होवें। तत्पश्चात नमस्कार मंत्र का उच्चारण करें।
ओ३म् नम: शम्भवाय च मयोभवाय च।
नम: शंकराय च मयस्कराय च। नम: शिवाय च शिवतराय च।।
यजु: १६.४६
समापन मंत्र-
ओ३म् द्यौ: शान्तिरन्तरिक्ष शान्ति: पृथिवी शान्ति राप: शान्तिरोषधय: शान्ति:।
वनस्पतया: शान्तिर्विश्वेदेवा शन्तिब्रह्म शान्ति सर्व शान्ति: शान्तिरेव
शान्ति: सा मा शन्तिरेधि।। ओ३म् शान्ति: शान्ति: शान्ति:
अब प्रश्न उठता है कि संध्योपासना क्या है? तो संध्योपासना शब्द स्वयं बताता है कि ध्यान, मानसिक एकाग्रता,मौन साधना यानी योग साधना से समाधि साधना के बीच की क्रिया को संध्योपासना कहते हैं। ध्यान,मानसिक एकाग्रता, मौन साधना यानी योग साधना प्रत्येक ग्रहस्थ एवं ब्रह्मचारी के लिए आवश्यक है किन्तु योग साधना और समाधि साधना वानप्रस्थी, संन्यासी एवं पूर्ण ब्रह्मचर्य व्रत का संकल्प लेने वाले व्यक्ति या संत-धर्मात्मा के लिए उपयुक्त है।
कहां और कैसे की जाए संध्योपासना
संध्या सदा एकांत तथा शांत वातावरण में करनी चाहिए,जहां मन स्थिर रह सके। संध्या में मन को एकाग्र का सबसे उत्तम उपाय उन मंत्रों के अदृश्य अर्थों पर अपने मन को लगाना है। अत: अर्थ की भावना करते हुए मंत्र का जप मन में करना चाहिए और अब कभी ऐसा प्रतीत हो कि मंत्र के जप के साथ अर्थ का बोध नहीं हो रहा तो समझना चाहिए कि मन नहीं लग रहा है। इसके लिए बार-बार प्रयास करते रहना चाहिए।
संध्या रात्रि और दिन की दोनों संधि बेलाओं में करनी चाहिए। इसके प्रारंभ करने से पूर्व भूमिका के रूप में तैयारी करने के लिए पहले स्नानादि द्वारा शरीर-शुद्धि तथा राग-द्वेष,चिंतादि सब दुर्भावनाओं से मन को मुक्त कर लेना चाहिए। यदि आलस्यादि आए तो मार्जन करें। तदनंतर मन को एकाग्र व शरीर में चेतना लाने के लिए कम से कम तीन प्राणायाम कर लें।
सर्वप्रथम गुरु मंत्र गायत्री मंत्र का जाप करके स्वयं को एकाग्र चित्त करें-
ओ३म् भूर्भुव स्व:। तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि।
धियो यो न: प्रचोदयात्।। यजु.अ.३६। मं. ३।।
गले के कफ आदि दोष को साफ करने के लिए सर्वप्रथम दायीं हथेली में जल लेकर इस मंत्र से तीन आचमन करें:-
ओ३म शन्नो देवीरभिष्टयऽआपो भवन्तु पीतये।
शंयोरभिस्त्रवन्तु न:।। यजु.अ.३६। मं. १२।।
इसके बाद परमात्मा से अंगों में शक्ति की प्रार्थना करते हुए इन मंत्रों से केवल मध्यमा और अनामिका अंगुलियों से जल स्पर्श करके अपने विभिन्न अंगों का यथाक्रम स्पर्श करें।
मुख का पहले दायां और फिर बायां भाग इस मंत्र ‘ओ३म वाक् वाक्’ कह कर स्पर्श करें।
नासिका का पहले दायां और फिर बायां भाग इस मंत्र ‘ओ३म प्राण: प्राण:’ कह कर स्पर्श करें।
नेत्रों में पहले दाईं और फिर बायीं नेत्र का यह मंत्र ‘ओ३म चक्षुश्चक्षु:’ कह कर स्पर्श करें।
दोनों कानों का पहले दायां और फिर बायां यह मंत्र ‘ओ३म श्रोत्रम् श्रोत्रम्’ कह कर स्पर्श करें।
यह मंत्र ‘ओ३म नाभिं:’ कह कर नाभि का स्पर्श करें।
तत्पश्चात यह मंत्र ‘ओ३म हृदयम्’ कह कर हृदय का स्पर्श करें।
‘ओ३म कण्ठ:’ कह कर गले का स्पर्श करें।
‘ओ३म शिर:’ कह कर सिर का स्पर्श करें।
‘ओ३म बाहुभ्यां यशोबलम्’ कह कर दोनों भुजाओं के मूल स्कंधों का स्पर्श करें।
‘ओ३म करतलकरपृष्ठे’ कह कर दोनों हथेलियों का स्पर्श करें।
मार्जन मंत्र
इसके बाद ‘ओ३म भू: पुनातु शिरसि’ (सिर पर), ‘ओ३म भुव: पुनातु नेत्रयो ’
(दोनों नेत्रों पर), ‘ओ३म स्व: पुनातु कण्ठे (गले पर), ‘ओ३म मह: पुनातु हृदये (हृदय पर), ‘ओ३म जन: पुनातु नाभ्याम्’ (नाभि पर) ‘ओ३म तप: पुनातु पाद्यो:’ (दोनों पैरों पर), ‘ओ३म सत्यं: पुनातु पुन: शिरसि’ (पुन: सिर पर),‘ओ३म खं ब्रह्म पुनातु सर्वत्र’ (समस्त अंगों पर) जल छिडक़ कर ईश्वर से शक्ति देने की प्रार्थना करते हुए मार्जन करें।
प्राणायाम मंत्र
ओ३म् भू:। ओ३म् भुव:। ओ३म् स्व:। ओ३म् मह:।
ओ३म् जन:। ओ३म् तप:। ओ३म् ं सत्यम।। तैत्ति. १०।२७।।
मार्जन मंत्र के पश्चात् इस मंत्र का जप करते हुए पूर्ण विधि-विधान से कम से कम तीन प्राणायाम करें। नाभि के नीचे से मूलेंद्रिय के ऊपर संकोच करके हृदय के वायु अंदर लेके अंदर ही थोड़ा सा रोकें। इस प्रकार यह एक ही प्राणायाम हुआ।
इस प्रकार अर्थ-चिंतनपूर्वक प्राणायाम करने के पश्चात् सृष्टि रचना की भावना द्वारा परमेश्वर की स्तुति करते हुए तथा पाप न करने का संकल्प करते हुए निम्न अघमर्षण मंत्र पढ़ें।
ओ३म् ऋतं च सत्यंञचाभीद्धात्तपसोऽध्यजायत।
तत्रो रात्र्य जायत तत: समुद्रो अर्णव:।।
ओ३म् समुद्रादणवादधि संवत्सरों अजायत।
अहो रात्राणि विदधद्विश्वस्य मिषतो वशी।।
ओ३म् सूर्याचन्द्रमसौ धाता याथापूर्वमकल्पयत् ।
दिवं च पृथिवीं चान्तरक्षिमथो स्व:।।
ऋग्वेद मं. 10 सूक्त १९०
इस प्रकार पापानुष्ठान के सर्वथा परित्याग का संकल्प करने के पश्चात् आचमन मंत्र से आचमन करें।
ओ३म शन्नो देवीरभिष्टयऽआपो भवन्तु पीतये। शंयोरभिस्त्रवन्तु न:।।
तदनंतर ‘मनसा परिक्रमा’ के मंत्रों से सर्वत्र सर्व शक्तिमान,न्यायकारी,दयालु पिता के समान पालन करने वाले रक्षक परमेश्वर का ध्यान करते हुए अपने मन में दृढ़ आस्तिकता और शक्ति को उत्पन्न करें।
ओ३म् प्राची दिगग्निरधिपतिरसितो रक्षितादित्या इषव:।
तेभ्यो नमोऽधिपतिभ्यो नमो रक्षितभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु।
यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्म:।।१।।
अथर्व.काण्ड ३ सू.२७ मं. १
जिस ओर सूर्य उदित होता है व प्राची दिशा है। यानी पूर्व की दिशा को प्राची दिशा कहते हैं। इस दिशा का स्वामी ज्ञान स्वरूप बंधनरहित परमात्मा हमारा रक्षक हो। वह परमात्मा किरणों व प्राणरूप साधनों से समस्त संसार की रक्षा करता है। उन इन इंद्रियों के अधिपति रूप शरीर की रक्षा करने वाले प्राणों की बारंबार स्तुति करता हूं। जो कोई हमसे अज्ञानवश द्वेष करता हो और जिससे हम द्वेष करते हैं, उसे हम आपके न्यायरूपी सामथ्र्य पर छोड़ते हैं, साथ ही प्रार्थना करते हैं किवह अनर्थ से दूर होकर हमारा मित्र बने और हम उसके मित्र बनें।
ओ३म् दक्षिणा दिगिन्द्रोऽधिपतिस्तिरश्चिराजी रक्षिता पितर इषव:।
तेभ्यो नमोऽधिपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्योअस्तु।
यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्म:।। २।।
अथर्व.काण्ड ३ सू.२७ मं. २
दक्षिण दिशा का स्वामी परमैश्वर्ययुक्त समस्त चराचर प्राणियों में प्रकाशमान परमात्मा हमारी रक्षा करने वाला हो। वह परमात्मा ज्ञानी सत्य विद्या प्रकाशक विद्वान रूप साधनों से समस्त संसार की रक्षा करता है। उन सत्य विद्याओं के स्वामी सत्यज्ञान से मनुष्यता के रक्षक प्रकाशमय विद्वानों की हम बारंबार स्तुति करते हैं। जो कोई हमसे अज्ञानवश द्वेष करता हो और जिससे हम द्वेष करते हैं, उसे हम आपके न्यायरूपी सामथ्र्य पर छोड़ते हैं, साथ ही प्रार्थना करते हैं कि वह अनर्थ से दूर होकर हमारा मित्र बने और हम उसके मित्र बनें।
ओ३म् प्रतीची दिग्वरुणोऽधिपति: पृदाकू रक्षितान्न मिषव:।
तेभ्यो नमोऽधिपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्योअस्तु।
यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्म:।। ३।।
अथर्व.काण्ड ३ सू.२७ मं. 3
पश्चिम दिशा का स्वामी सर्वोत्तम सबसे स्वीकरणीय सर्वज्ञ परमात्मा हमारा रक्षक हो। वह परमात्मा भोग रूप साधनों से सब संसार की रक्षा करता है। उन सुख के स्वामी जीवन के रक्षक समस्त भोगों की बारंबार स्तुति करते हैं। जो कोई हमसे अज्ञानवश द्वेष करता हो और जिससे हम द्वेष करते हैं, उसे हम आपके न्यायरूपी सामथ्र्य पर छोड़ते हैं, साथ ही प्रार्थना करते हैं कि वह अनर्थ से दूर होकर हमारा मित्र बने और हम उसके मित्र बनें।
ओ३म् उदीची दिक् सोमोऽधिपति: स्वजो रक्षिताऽशनिरिषव:।
तेभ्यो नमोऽधिपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्योअस्तु।
यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्म:।। ४।।
अथर्व.काण्ड ३ सू.२७ मं. ४
उत्तर दिशा का स्वामी समस्त जगत को उत्पन्न करने वाला न्यायकारी परमात्मा हमारा रक्षक हो। वह परमात्मा दंड रूप साधनों से समस्त संसार की न्यायपूर्वक रक्षा करता है। उन न्याय के स्वामी पापों से रक्षा करने वाले दण्ड-रूप साधनोंं की हम बारंबार स्तुति करते हैं। जो कोई हमसे अज्ञानवश द्वेष करता हो और जिससे हम द्वेष करते हैं, उसे हम आपके न्यायरूपी सामथ्र्य पर छोड़ते हैं, साथ ही प्रार्थना करते हैं कि वह अनर्थ से दूर होकर हमारा मित्र बने और हम उसके मित्र बनें।
ओ३म् ध्रुवा दिग्विष्णुरधिपति: कल्माषग्रीवो रक्षिता वीरुध इषव:।
तेभ्यो नमोऽधिपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्योअस्तु।
यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्म:।। ५।।
अथर्व.काण्ड ३ सू.२७ मं. ५
नीची दिशा का स्वामी सर्वव्यापक सत्कर्म की प्रतिपादिका वेदवाणी को देने वाला
परमात्मा हमारा रक्षक हो। वह पिता ज्ञानरूप साधनों से समस्त संसार की रक्षा करता है। उन इन समस्त चेतन प्राणियोंं के स्वामी अज्ञानांधकार से रक्षा करने वाले ज्ञान रूप साधनों की हम बारंबार स्तुतिकरते हैं। जो कोई हमसे अज्ञानवश द्वेष करता हो और जिससे हम द्वेष करते हैं, उसे हम आपके न्यायरूपी सामथ्र्य पर छोड़ते हैं, साथ ही प्रार्थना करते हैं कि वह अनर्थ से दूर होकर हमारा मित्र बने और हम उसके मित्र बनें।
ओ३म् ऊध्र्वा दिग्बृहस्पतिरधिपति: श्वित्रो रक्षिता वर्षमिषव:।
तेभ्यो नमोऽधिपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्योअस्तु।
यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्म:।। ६।।
अथर्व.काण्ड ३ सू.२७ मं. ६
ऊपर की दिशा का स्वामी महती वेदवाणी व वृहत् ब्रह्मांड का रक्षक परमात्मा हमारा रक्षक हो। वह परमात्मा आनंद रूप साधनों से समस्त संसार की रक्षा करता है। उन इन समस्त जीवों के स्वामी-जड़ता से रक्षा करने वाले आनंद रूप साधनों की हम बारंबार स्तुति करते हैं। जो कोई हमसे अज्ञानवश द्वेष करता हो और जिससे हम द्वेष करते हैं, उसे हम आपके न्यायरूपी सामथ्र्य पर छोड़ते हैं, साथ ही प्रार्थना करते हैं कि वह अनर्थ से दूर होकर हमारा मित्र बने और हम उसके मित्र बनें।
इस प्रकार छहों मनसा परिक्रमा के मंत्रों के अर्थ का ध्यान करते हुए जप करके सर्वशक्तिमान्, सर्वगुरु, न्यायकारी, दयालु पिता के समान पालन करने वाले, सब दिशाओं में और सब जगह रक्षा करने वाले परमेश्वर का ध्यान करें। तत्पश्चात् परमात्मशक्ति व उसके स्वरूप का अनुभव कर उसकी अमर गोद में बने रहने की प्रार्थना उपस्थान मंत्रों के माध्यम से करें। यह मंत्र इस प्रकार हैं-
ओ३म् उद्वयं तमसस्परि स्व: पश्यन्त उत्तरम्। देवं देवत्रा सूर्यमगन्म ज्योतिरुत्तमम्।। यजु.३५।१४।
हे परमात्मन् चराचर जगत् के आत्मा तुझको देखते हुए हम उत्कृष्ट श्रद्धावान होकर आपको प्राप्त हों। हे प्रभो, आप ही स्वप्रकाशस्वरूप सर्वोत्कृष्ट समस्त दित्यगुणयुक्त पदार्थों में
अनंत दिव्यगुण संपन्न धर्मात्मा और मुमुक्षुओं को सब प्रकार का आनंद देने वाले, जगत् में प्रलय के पश्चात् भी नित्यरूप में विराजमान सर्वानंदस्वरूप और अज्ञानांधकार से सर्वथा पृथक् बहुत दूर हो। प्रभो! आपकी कृपा से हम आपको प्राप्त कर सकें।
ओ३म् उदुत्यं जातवेदसं देवं वहन्ति केतव:। दृशे विश्वाय सूर्यम्।
यजु.३३।३१।
नाना प्रकार के संसार की रचना आदि के नियामक व प्रकाशक परमात्मा के गुण विश्व का ज्ञान प्राप्त करने के लिए उस समस्त चराचर जगत की आत्मा चारों वेदों के प्रकाशक और समस्त भूतों में विद्यमान दिव्यगुणयुक्त परमात्मा को सिद्ध करते हैं। इन रचनाओं को देखकर कोई नास्तिक भी ईश्वर का निषेध नहीं कर सकता।
ओ३म् चित्रं देवानामुदगादनीकं चक्षुर्मित्रस्य वरुणस्याग्ने:।
आप्रा द्यावापृथिवीऽअन्तरिक्ष सूर्यऽआत्मा जगतस्तस्थुषश्च स्वाहा।।
यजु.७।४२।
वही दिव्यगुणयुक्त सूर्य समस्त जंगम और स्थावर जगत् की आत्मा है। वही ईश्वर द्यू,पृथ्वी और अंतरिक्ष आदि समस्त संसार की रचना कर उसमें पूर्ण होकर उसकी रक्षा करता है। वहीे विज्ञानमय इन सबका प्रकाशक है। इसलिए सर्वथा द्रोह रहित मनुष्य समस्त श्रेष्ठ कर्माे में वर्तमान विद्वान् और सर्वप्रकाशक अग्नि का प्रकाश और सत्योपदेष्टा है। वह दिव्यगुणयुक्त विद्वानों के हृदय में ही उत्कृष्टरूप में प्रकाशित होता है। वह ब्रह्म अवर्णनीय और अद्भुत है। बस यही उसकी सबसे सुंदरतम स्तुति है।
ओ३म् तच्चक्षुर्देवहितं पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरत्।
पश्येम शरद: शतं जीवेम शरद: शतœशृणुयाम शरद:
शतम्प्रब्रवाम शरद: शतमदीना: स्याम शरद:
शतं भूयश्च शरद: शतात्।।
यजु.३६।२४।
जो सर्वदृष्टा दिव्यगुण वाले धर्मात्मा विद्वानों का हितकारी है। जो सृष्टि से पूर्व समस्त
जगत् का उत्पन्न करने वाला शुद्ध था। वह ब भी ऐसा है और आगे भी प्रलय के पश्चात् सर्वत्र व्याप्त विज्ञानस्वरूप व उत्कृष्ट सामथ्र्यवान रहेगा। उस परमात्मा को सौ वर्ष तक देखें। उसकी कृपा से सौ वर्ष तक प्राण-धारण करें। उसके गुणों में श्रद्धा और विश्वास रखते हुए उसकी ही सुनें। उस परमात्मा और उसके गुणों का सौ वर्ष तक उपदेश करेंं और उसकी कृपा से उसकी उपासना से, उसके विश्वास से हम सौ वर्ष तक अदीन रहें। कभी किसी के सामने दीन न बनें। सर्वदा परमात्मा की कृपा से हम स्वतंत्र बने रहें तथा उसके अनुग्रह से सौ वर्ष से भी अधिक समय तक जीवित रहते हुए हम उसके गुणों को सुनें और कहें।
इस प्रकार अत्यंत श्रद्धावन होकर स्तुति करते हुए परमात्मा का ध्यान करें। इसके बाद गुरु मंत्र गायत्री का पाठ करें-
ओ३म् भूर्भुव: स्व:। तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो न प्रचोदयात् ।।
अंत में परमात्मा में अटल श्रद्धा व विश्वास रखते हुए अपने आपको समर्पित करें। समर्पण के लिए यह मंत्र उच्चारें-
हे ईश्वर दयानिधे! भवत्कृपयानेन जपोपासनादिकर्मणा
धर्मार्थ काममोक्षाणां सद्य: सिद्धिर्भवेन्न:।
हे परमेश्वर दयानिधे! आपकी कृपा से जपोपासनादि कर्मों को करके हम धर्म,अर्थ,काम और मोक्ष-सिद्धि को शीघ्र प्राप्त होवें। तत्पश्चात नमस्कार मंत्र का उच्चारण करें।
ओ३म् नम: शम्भवाय च मयोभवाय च।
नम: शंकराय च मयस्कराय च। नम: शिवाय च शिवतराय च।।
यजु: १६.४६
समापन मंत्र-
ओ३म् द्यौ: शान्तिरन्तरिक्ष शान्ति: पृथिवी शान्ति राप: शान्तिरोषधय: शान्ति:।
वनस्पतया: शान्तिर्विश्वेदेवा शन्तिब्रह्म शान्ति सर्व शान्ति: शान्तिरेव
शान्ति: सा मा शन्तिरेधि।। ओ३म् शान्ति: शान्ति: शान्ति:
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