मनुष्यों का शुभ कर्मों का न किया जाना तथा दुष्कर्मों का किया जाना अल्पज्ञान या अज्ञान के कारण से ही है।
इस अज्ञान कारण ही मनुष्य, कर्तव्य या अकर्तव्य कर्म का अन्तर नहीं कर पाता और ईष्र्या,मोह,लोभ,काम और क्रोध के वशीभूत हो दुष्क र्म कर बैठता है। अत: वेद ने मनुष्यों के कर्तव्य कर्मों का निर्धारण करते हुए कहा है
तन्तु तन्वन् भानुमन्विहि,ज्योतिष्मत: पंथो रक्ष घिया कृतान् ।।
(ऋग्वेद मं.१०-सू.५३-मं.६)
संसार का ताना-बाना बुनता हुआ (संसारिक कर्तव्य कर्मों और व्यवहारों को करता हुआ) प्रकाश के पीछे जा अर्थात ज्ञानयुक्त कर्म कर और ज्ञान भी कैसा हो? बुद्धि से बनाया,बुद्धि से परिष्कृत किया हुआ और ऋषियों द्वारा प्रदत्त तथा ज्योति से युक्त मार्गों की रक्षा कर अर्थात ज्ञान से युक्त मार्गों पर चल।
मनुस्मृति में कहा भी है
सर्वेषमपि चैतेषामात्मज्ञानं परं स्मृतम्।
तद्ध्यंग्यसर्वविद्यानां प्राप्यते ह्यमतं तत्:।।
(मनुस्मृति अ.१२-श्लोक ८५)
सब कर्मों में आत्म-ज्ञान श्रेष्ठ समझना चाहिये क्योंकि यह सबसे उत्तम विद्या है और अविद्या का नाश करती है और जिससे अमृत अर्थात मुक्ति प्राप्त होती है।
कर्म के भेद
आध्यात्मिक दृष्टि से कर्म के तीन भेद हैं।
1.शुभ कर्म- शास्त्रोक्त तथा निष्काम भावना से किये कर्म, जिनका कि परिणाम स्वयं की आत्मोन्नति तथा संसार के समस्त जीवों को सुखद हो।
2. अकर्म- जो कर्म, कर्मकर्ता को वस्तुत: लाभ न पहुंचा कर परिणाम में अकारथ जाये अथवा अप्रत्यक्ष रूप से पाप का भागी बनाये ‘अकर्म’ कहलाते हैं। जैसे परमात्मा के सच्चे यानी वास्तविक स्वरूप को न मानकर उसकी तथाकथित पूजा करना अथवा अपात्र को दान देना। ऐसे कर्म क्रमश: या तो कोई कर्म-फल प्राप्त नहीं कराते अथवा पाप के भागी बनाते हैं।
3. दुष्कर्म-जिन कृत कर्मों का प्रभाव प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से, तत्काल या कालान्तर में किन्हीं मनुष्य या मनुष्यों को अथवा प्राणियों या प्राणी विशेष को शारीरिक या अन्य
किसी प्रकार का कष्ट या हानि पहुंचावे उसे दुष्कर्म कहते हैं।
सभी शुभ कर्म हैं यज्ञ
वेद तथा वेद प्रणीत सत् शास्त्रों ने ईश्वर की भक्ति (ईश्वरीय आज्ञाओं का पालन), उपासना अर्थात् ईश्वर के गुण,कर्म और स्वभावों का स्वयं के जीवन में धारण करना, निष्काम भाव से सुपात्रों को दान देना,दीन-दु:खी और असहाय की सेवा,सुश्रूषा, सहायता करना तथा सरल स्वभाव से युक्त होकर मधुर वाणी बोलना आदि शुभ कर्म बताये गये हैं। परन्तु जिस एक शुभ कर्म को विशेष महत्व प्रदान किया गया है-वह ‘यज्ञ’ है। ‘यज्ञ’ शब्द
अपने आप में व्यापक अर्थ वाला है और सभी शुभकर्मोँ का पर्यायवाची है। यज्ञ में सभी प्रकार के शुभ कर्मों की भावना निहित है।
अपनी स्वयं की आत्मा के उत्थान से लेकर, व्यक्ति विशेष या सार्वजनिक लोकहितार्थ में निष्ठापूर्वक निष्काम भाव तथा आसक्ति को त्याग कर समत्व भाव से किया गया प्रत्येक कर्म यज्ञ है।
यज्ञानुष्ठान तथा यज्ञ की भावना को जीवन के दैनिक आचरण तथा व्यवहार में उतारना वेदादि शास्त्रों में कर्तव्य ही नहीं अपितु परम कर्तव्य कहा है।
श्रीकृष्ण जी ने गहा है कि
यज्ञदानतप: कर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत्।
यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम्।।
(श्री मद्भगवद् गीता अ.१८-श्लोक ५)
विद्वानों का यह कहना है कि समस्त प्रकार के सकाम कर्मों को दोषपूर्ण समझ कर त्याग देना चाहि किन्तु यज्ञ,दान तथा तपस्या के कर्मों को कभी नहीं त्यागना चाहिए। अर्थात यज्ञ, दान और तप- ये त्याग करने योग्य कर्म नहीं हैं अपितु अनिवार्य कर्तव्य कर्म हैं। क्योंकि दान,यज्ञ और तप बुद्धिमान लोगों को पवित्र करने वाले हैं।
वेदों में अनेक स्थानों पर यज्ञ की विशेषताओं का वर्णन है-
स यज्ञेन वनवद्देव मत्र्तन्। (ऋग्वेद मं.५-सू.३-मं.५)
वह परमात्मा यज्ञ के द्वारा मनुष्यों को निरन्तर शक्ति युक्त कर देता है।
ईजाना: स्वर्ग यान्ति लोकम।। (अथर्व वेद का.१८-सू.- २-मं.९)
यज्ञ द्वारा उपासना करने वाले मनुष्य स्वर्ग यानी विशेष सुख को प्राप्त होता है।
आयुर्यज्ञेन कल्पताम्। यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवा।। (यजुर्वेद अ.३१-मं.१६)
जीवन यज्ञ से सफल होता है। यज्ञ आयु के लिए कल्प वृक्ष के समान है। विद्वान और सदपुरुष यज्ञ के माध्यम से ईश्वर की उपासना करते हैं।
यज्ञो हि त इन्द्र वर्धनो भूदुत।। (ऋग्वेद मं.३-सू.३२-मं.१२)
हे आत्मन! यज्ञ तेरी बुद्धि की उन्नति का साधन है। यज्ञ से ही सम्पन्नता आती है।
मतिश्च में सुमतिश्च में यज्ञेन कल्पन्ताम् ।। (यजुर्वेद अ.१८-मं.११)
मेरी मति मेरी सुमति यज्ञ से सफल हो अर्थात यज्ञ से ज्ञान और कर्मों की सफलता हो सकती है।
इयं ते यज्ञिया तनु:।। (यजुर्वेद अ.४-मं.१३)
हे मनुष्य! ईश्वर ने तेरा शरीर यज्ञ के लिए ही दिया है।
स्वाध्यायेन व्रतैर्होमैस्त्रैविधेने ज्ययासुतै:।
महायज्ञैश्च यज्ञैश्च ब्राह्मीयं क्रियते तनु:।।
(मनु. अ.२-श्लोक २८)
वेद का पढऩा, व्रत,हवन,नामव्रत,देवर्षि पितरों का तर्पण महायज्ञ,यज्ञ सब कर्मों से शरीर आत्मा मोक्ष पाने योग्य होता है। संक्षेप में कहा जाए तो यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म: अर्थात यज्ञ सर्वश्रेष्ठ कर्म है।
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