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अगर महर्षि दयानन्द न होते तो...

अगर महर्षि दयानन्द न होते तो हम आज गुलामी का जीवन जी रहे होते, सती प्रथा से चारों ओर हाहाकार मचा होता, बाल विधवाओं का चारों ओर साम्राज्य दिखता। जगह-जगह वृंदावन की विधवाओं जैसे आश्रम होते। सबसे बड़ी बात आज जिस आधी आबादी और महिलाओं के अधिकार की बात हो रही है वह महर्षि दयानन्द की देन हैं। उनसे पहले महिलाओं को तरह-तरह की असभ्य पदवी से अपमानित किया जा रहा था। महिलाओं को पढऩे का अधिकार भी नहीं था। महर्षि दयानन्द ने ये सारी कुरीतियों को दूर कराकर महिला शिक्षा को बढ़ावा देकर  समान अधिकार दिलाया। ढोंग-पाखण्ड और पुराणपंथियों का साम्राज्य होता और वेदों का नाम जानने वाला कोई नहीं होता। यज्ञ हवन तो दूर की बात असली ईश्वर को भी कोई नहीं जान पाता।
महर्षि दयानन्द के अवतरण के समय भारत पराधीन था। सर्वत्र अविद्या, अन्धकार,ढोंग-पाखण्ड,पोपलीला आदि की घटाएं छाई हुईं थीं। भारतीय संस्कृति,सभ्यता,साहित्य,संस्कार, परम्परा, आदर्शों आदि की होली हो रही थी। इतिहास में परिवर्तन करके उसे विकृत किया जा रहा था। सत्य सनातन वैदिक धर्म लुप्त हो रहा था। मन्दिरों में पण्डों और पुजारियों का बोलबाला था, पवित्र मन्दिर पाप और अनाचार के केन्द्र बन रहे थे। कहीं अनाथ बालकों का बिलखना तो कहीं असहाय विधवाओं का करुण क्रन्दन सुनाई देता था। बाल-विवाह, अनमेल विवाह बढ़ रहे थे। नारी जाति की स्थिति दयनीय और शोचनीय हो रही थी। उसे पग-पग पर अपमानित और पददलित समझा जाता था । ‘‘ स्त्रीशूद्रो नाधीयताम्’’ स्त्री और शूद्रों को वेद पढऩे का अधिकार

नहीं है। ‘‘द्वारं किमेकं नरकस्य नारी’’ नरक का एकमात्र द्वार क्या है? नारी। शंकराचार्य ने नारी को नरक का द्वारा घोषित कर दिया था।
पति की मृत्यु के बाद स्त्रियों को उनके साथ जीवित जला दिया जाता था। शूद्रों की स्थिति अत्यन्त शोचनीय थी। वेदों को लोग भूलते जा रहे थे। उनका पठन-पाठन बन्द हो रहा था। वेदों का स्थान मनुष्य रचित ग्रंथों ने ले लिया था। अपनी अज्ञानता व असमर्थता और अविद्या तथा अशिक्षा के कारण वेदों को गड़रियों के गीत की संज्ञा दे दी गयी थी। प्रत्येक क्षेत्र में भयावह स्थिति बन गयी थी। मानव दानव बनकर भटक रहा था। परस्पर की फूट की आग हर क्षेत्र में फैल रही थी, भारतीय समाज अपने प्राचीन गौरव से पतित होकर विकृतियों की ओर बढ़ रहा था। सत्य धर्म और सत्य पथ का कोई प्रदर्शक नहीं आ रहा था। चारों ओर घोर अज्ञान, पतन, कुरीतियों,पाखण्ड आदि छा रहा था।
क्या था यक्ष प्रश्न?
एक यक्ष प्रश्न कौंध रहा था कि आर्य जगत की अधोगति कब और किस प्रकार हुई? आर्य संतान नाना व्याधियों के विकार से विपर्यस्त हो गई थी। रोग के बाहुल्य और रोगजनिक प्रकोप के प्राबल्य से हिन्दुओं के समाजरूपी देह का सर्वांग ही शीर्ण और विवर्ण हो गया था। अब वही प्रश्न मचल रहा था कि हिन्दुओं का भाग्य किस समय से नीचा होना प्रारम्भ हुआ? और भारत के आकाश में किस दिन से अमावस्या रात्रि का सूत्रपात हुआ? आर्य जाति का कोई इतिहास नहीं है। इसलिए संशय रहित होकर इन प्रश्नों का उत्तर नहीं दिया जा सकता। तब भी स्थूल रूप से इतना अवश्य कहा जा सकता है कि जिस दिन से गौतमबुद्ध ने काशी में आकर अपना स्वोद्भावित और मन:कल्पित ‘धर्मचक्र’ चलाया उसी दिन से भारत में काल मेघ का संचार हुआ। उसी दिन से हिन्दुओं के समाजरूपी शरीर में जिसकी वर्णाश्रमादि से रक्षा होती चली आई थी, अनेक रोगों ने प्रवेश करना प्रारम्भ कर दिया। उसी दिन से आचार,अनुष्ठान,शास्त्र,धर्म,उद्देश्य में हिन्दू अपने आदर्श से क्रमश: च्युत होने लगे।
प्रयत्न तो हुए पर सफल नहीं रहे
यह बात नहीं है कि  हिन्दुओं को बौद्ध मत से उत्पन्न रोगों ने ही दबाया। अन्यान्य मत-

मतान्तरों से उत्पन्न हुए रोगों ने भी हिन्दुओं को समय-समय पर विशेष रूप से उपद्रवयुक्त और स्वास्थ्यहीन किया। यहां यह प्रश्न हो सकता है कि क्या इन सारे 2200 वर्षों में केवल हिन्दू केवल रोग पर रोग ही भोगते चले आए? क्या हिन्दू जाति को शुद्ध और संस्कृत करने के लिए किसी उपाय और यत्न का अवलम्बन नहीं किया गया?
इन प्रश्नों के उत्तर में अनेक मनुष्य कहेंगे कि हां,किया क्यों नहीं गया? प्रयत्न एक बार नहीं बहुत बार किया गया और बहुत दिनों से किया जा रहा है। आर्य जाति का उद्धार करने के लिए भारत भूमि में बुद्ध,शंकर आदि बहुत से चिकित्सकों का अविर्भाव हुआ है। परन्तु बुद्ध,शंकर आदि की चिकितसा क्या किसी अंश में फलीभूत हुई? साधारणत: हम देखते हैं कि जब एक चिकित्सक की फलवती चिकित्सा हो जाती है तो रोगों की चिकित्सा के लिए दूसरे चिकित्सक को बुलाने की आवश्यकता नहीं होती। परन्तु जब हम भारत भूमि के इतिहास को देखते हैं कि चिकित्सक के पश्चात चिकित्सक, सुधारक के पश्चात सुधारक चले आते हैं। बुद्ध के पीछे शंकर, शंकर के पीछे रामानुज,रामानुज के पीछे मध्वाचार्य, मध्वाचार्य के पीछे वल्लभाचार्य प्रभृति आचार्यों और कबीर,दादू, नानक,गौरांग चैतन्य, प्रभृति  आदि सुधारकों का आविर्भाव देखा जाता है तो यह समझ में आ जाता है कि उनमें से किसी की चिकित्सा सफल नहीं हुई, उनमें से किसी का यत्न भी भारत के रुग्ण समाज को सब प्रकार से स्वस्थ नहीं कर सका। या तो वह रोग का यथार्थ निदान करने में समर्थ नहीं हुए या जिस प्रणाली का उन्होंने अवलम्बन किया, वह रोगी की प्रकृति के अनुकूल नहीं पड़ी। यदि ऐसा न हुआ होता तो देश में पन्थों की सृष्टि क्यों होती? सम्प्रदायों के ऊपर सम्प्रदायों का आविर्भाव क्यों होता? अवतारों के ऊपर अवतारों का अभ्युदय क्यों होता? यदि ऐसा न हुआ होता तो हिन्दुओं की नाड़ी ऐसी क्षीणावस्था में क्यों होती? हिन्दू जाति का जीवन इतना म्रियमाण क्यों होता?
हिन्दुओं का शरीर ऐसा शीतल और कम्पायमान क्यों होता? हिन्दू समाज ऐसा मलिन क्यों रहता? हिन्दू धर्म ऐसा अपरिसेव्य क्यों होता? सच्ची बात तो यह है कि अब तक रोग की ठीक-ठीक से चिकित्सा हुई ही नहीं। उन उपर्युक्त 2200 वर्षों में हिन्दू चिकित्सारहित ही रहे। इसी कारण हिन्दुओं के रोग ने भीषण से भीषणतम रूप धारण कर लिया है और आज हिन्दू मृत्यु शैय्या

पर लेटे हुए जीवन के शेष नि:श्वासों की प्रतीक्षा कर रहे हैं।
...तो क्या हिन्दुओं का अस्तित्व मिट जाएगा?
तो ऐसी परिस्थिति में यह यक्ष प्रश्न सामने आया कि तो क्या हिन्दू जाति का अस्तित्व मिट जाएगा? क्या औषधि के अभाव, चिकित्सा के अभाव, चिकित्सक के अभाव से हिन्दू मर जाएंगे? नहीं-नहीं विधाता की इच्छा है कि हिन्दू संसार में अपने प्रनष्ट गौरव को पुन: स्थापित करें। देखों इसी संजीवनी औषधि हाथ में लिए हुए चिकित्सक आ रहा है। वह आरोग्य की अभय वाणी का उच्चारण करता हुआ आगे बढ़ रहा है।
ऐसे घोरतम अन्धकार में संसार को ऐसे महामानव की आवश्यकता थी,जिसमें कपिल,कणाद और गौतम का पाडित्य हो, जिसमें हनुमान और भीष्म पितामह जैसा चमकता हुआ ब्रह्मचर्य हो, जिसमें भीम जैसा अपार बल हो, जिसमें गौतमबुद्ध जैसा त्याग और वैराग्य भरा हो,जिसमें श्रीरामचन्द्र की गौरवपूर्ण मर्यादा और योगीराज श्रीकृष्ण की नीतिमत्ता हो, जिसमें पातंजलि और व्यास जैसी आध्यामिकता हो। वह योगी युगपुरुष गुजरात प्रांत से आ रहा है। और शनै: शनै: जब वह समय आया तो उस युगपुरुष महर्षि दयानन्द सरस्वती जी महाराज ने अवतार भी लिया।

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