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श्रीकृष्ण भी महात्मा विदूर से घबराते थे?

विदुर का अर्थ कुशल, बुद्धिमान अथवा मनीषी। अपनी विदुर नीति, न्यायप्रियता एवं निष्पक्षता के लिए सुविख्यात धर्मज्ञ महाराज विदुर महाभारत के मुख्य पात्रों में से एक हैं। वो हस्तिनापुर के प्रधानमंत्री, कौरवों और पांडवों के काका और धृतराष्ट्र एवं पाण्डु के भाई थे। उनका जन्म एक दासी के गर्भ से हुआ था।
राजा पांडु बने तो प्रधानमंत्री विदुर बने
बड़े होने पर जब राज्याभिषेक का समय आया तो सबसे बड़े होने के कारण धृतराष्ट्र ही उत्तराधिकारी थे लेकिन विदुर की नीति के चलते ही भीष्म को पाण्डु को राजगद्दी सौंपनी पड़ी क्योंकि विदुर ने ही धृतराष्ट्र के नेत्रहीन होने के कारण राजपद न दिए जाने का सुझाव दिया था।  विदुर एक दासी  पुत्र  होने के कारण भले ही राजा बनने के अधिकार से वंचित रहे। लेकिन अपनी सूझबूझ तथा समझदारी के दम पर उन्हें हस्तिनापुर का प्रधानमंत्री बनाया गया। पाण्डु को राज्य सौंपने के पीछे विदुर के फैसले का भी साथ था, जिसका विरोध धृतराष्ट्र ने किया था। क्योंकि ज्येष्ठ पुत्र के साथ पर अनुज को राज्य की गद्दी सौंप देना धृतराष्ट्र को कभी भी गंवारा ना था। लेकिन तब वे अपने नेत्रहीन होने के कारण कुछ कर भी नहीं सकते थे। लेकिन राजा पाण्डु की मृत्यु के बाद राज्य की गद्दी उन तक वापस लौट ही आई।
राजा धृतराष्ट्र को रानी गांधारी से कौरव और पाण्डु को  पांच पाण्डवों की प्राप्ति हुई। पाण्डु की मृत्यु के पश्चात कुंती अपने पुत्रों को लेकर हस्तिनापुर लौट आईं जहां उनके लालन-पोषण एवं विद्या की जिम्मेदारी भीष्म ने ली।
द्रौपदी कांड के समय विदुर ने ही विरोध किया
कौरव एवं पाण्डवों के बीच हमेशा ही अनबन रही, जिसका परिणाम यह हुआ कि उन्होंने अर्जुन की पत्नी द्रौपदी की इज्जत को भरी सभा में तार-तार करने की कोशिश की। कौरवों की उस भरी सभा में एकमात्र विदुर ही थे जिन्होंने द्रौपदी को दांव पर लगाने के लिए पांडवों को लताड़ा था तो उसे बेइज्जत करने के प्रयास के लिए कौरवों का जमकर विरोध किया था। दुर्योधन-दुशासन को खरी-खोटी सुनाने के साथ धृतराष्ट्र को भी इस कृत्य के लिए जिम्मेदार माना था क्योंकि वह राजा थे। इसके अलावा भीष्म,द्रोण,कृपाचार्य और अन्य महान हस्तियों की भूमिका पर प्रश्नचिन्ह लगाया था।  लेकिन किसी ने उनकी एक ना सुनी।
दुर्योधन ने किया विदुर का अपमान
जब कौरव-पाण्डवों में बहस का मुद्दा युद्ध तक पहुंच गया, तब श्रीकृष्ण हस्तिनापुर आए ताकि दोनों गुटों में सुलह करा सके। उनके आने की खबर कौरवों में ज्येष्ठ दुर्योधन को मिल गई थी, इसलिए उसने उनके रहने का इंतज़ाम एक अच्छे स्थान पर करा दिया लेकिन श्रीकृष्ण ने उस स्थान पर जाने से साफ

मना कर दिया और कहा कि वे विदुर एवं उनके परिवार के साथ रहना पसंद करेंगे। उस समय तो दुर्योधन कुछ नहीं बोला लेकिन अगली ही सुबह भरी सभा में उसने विदुर को दुश्मनों (श्रीकृष्ण) का साथ देने के लिए जिम्मेदार ठहराया।
सभा में हथियार तोड़ दिया
इसके साथ ही जब दुर्योधन ने लगातार विदुर के खिलाफ विषबमन करना जारी रखा और कहा कि वह केवल दुश्मनों का ही साथ नहीं दे रहे बल्कि साथ ही विदुर एक दासी का पुत्र है, और उसका अतीत क्या है? इस सब पर भी उंगली उठाई। जिससे क्रोधित होकर विदुर ने उससे कहा कि यदि वह उस पर विश्वास ही नहीं करता तो वह यह युद्ध लडऩा ही नहीं चाहते। तत्पश्चात विदुर ने सबके सामने सभा में ही अपना हथियार तोड़ दिया।
धूृतराष्ट्र को दिया दो टूक जवाब
संधि कराने में श्रीकृष्ण के नाकाम रहने के बाद सबसे पहले विदुर ही राजा धृतराष्ट्र के पास प्रधानमंत्री की हैसियत से अंतिम बार गए। उन्होंने राष्ट्रहित की दुहाई देकर युद्ध टालने के लिए बहुत मनुहार की। किन्तु पुत्र मोह और बाल हठ के चलते जब युद्ध होना निश्चित हो गया और राजा धृतराष्ट्र और दुर्योधन ने प्रधानमंत्री पद के दायरे में रहने के लिए कहा तो विदुर ने तत्काल ही प्रधानमंत्री पद से त्याग पत्र दे दिया और निष्पक्ष बने रहे। जब युद्ध सत्रहवें दिन में प्रवेश कर गया तब धृतराष्ट्र ने विदुर को छोटे भाई की हैसियत से बुलवाकर कहा कि अब युद्ध समाप्त करवा दो तो विदुर ने जवाब दिया कि दासी पुत्र की हैसियत नहीं है कि वह इतना बड़ा युद्ध रुकवा सके।
श्रीकृष्ण भी विदुर से घबराते थे
ऐसा माना जाता है कि श्रीकृष्ण जानते थे कि दुर्योधन कुछ ऐसा ही करेगा इसलिए उन्होंने स्वयं विदुर के यहां रहने का फैसला किया था। क्योंकि यदि विदुर कौरवों की ओर से युद्ध का हिस्सा बन जाते तो पाण्डवों को हारने से कोई रोक नहीं सकता था। क्योंकि विदुर के पास एक ऐसा हथियार था जो अर्जुन के ‘गांडीव’ से भी कई गुणा शक्तिशाली था। कहते हैं कि युद्ध के दौरान क्रोधित होकर दुर्योधन ने श्रीकृष्ण के सामने एक चेतावनी रखी थी। उसने कहा कि वह जब चाहे विदुर को हुक्म देकर युद्ध लडऩे के लिए तैयार कर सकता है। लेकिन तभी श्रीकृष्ण ने कहा कि यदि विदुर द्वारा वचन तोडक़र युद्ध में आने का फैसला लिया गया तो वह भी उसे दिया हुआ अपना वचन भूल जाएंगे। जिसके अनुसार श्रीकृष्ण ने केवल पाण्डवों का सारथी बनने का फैसला किया था, क्योंकि यदि वे स्वयं हथियार उठाते तो यह युद्ध कुछ ही पलों में समाप्त हो जाता और पाण्डव खुद ही विजेता घोषित हो जाते। इसलिए ना चाहते हुए भी कभी भी दुर्योधन ने विदुर को युद्ध का हिस्सा बनने के लिए उत्तेजित नहीं किया।

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