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...तो कुन्ती चाहती तो नहीं होता महाभारत

कर्ण की पहचान छिपाना ही भारी पड़ा

राजमाता कुन्ती अगर सही समय पर कर्ण की पहचान अपने बेटे के रूप में बता देतीं तो महाभारत ही न होता। कर्ण की छवि आज भी भारतीय जनमानस में एक ऐसे महायोद्धा की है, जो जीवनभर प्रतिकूल परिस्थितियों से लड़ता रहा। बहुत से लोगों का यह भी मानना है कि कर्ण को कभी भी वह सब नहीं मिला जिसका वह वास्तविक रूप से अधिकारी था। तर्कसंगत रूप से कहा जाए तो हस्तिनापुर के सिंहासन का वास्तविक अधिकारी कर्ण ही था क्योंकि वह कुरु राजपरिवार से ही था और युधिष्ठिर और दुर्योधन से ज्येष्ठ था लेकिन उसकी वास्तविक पहचान उसकी मृत्यु तक अज्ञात ही रही। यही महाभारत का मुख्य कारण बना था। कर्ण यदि ज्येष्ठ पांडव घोषित हो जाते तो दुर्योधन किसके बल पर युद्ध करता और कर्ण-अर्जुन के सामने कौन टिक पाता। यदि इसके बाद भी भीष्म पितामह की राजसिंहासन के प्रति आस्था आड़े आती तो उसे कृष्ण और विदुर नीति की सूझबूझ से सुलझा लिया जाता।  कर्ण की छवि द्रौपदी का अपमान किए जाने और अभिमन्यु वध में उसकी नकारात्मक भूमिका के कारण धूमिल भी हुई थी और यही दोनों कारण और गुरु परशुराम से छल के बदले मिले अभिशाप ही उसकी मृत्यु के कारण बने।
कर्ण का जन्म कुन्ती को मिले एक वरदान स्वरुप हुआ था। चूंकि वह अभी भी अविवाहित थी इसलिये लोक-लाज के डर से उसने उस पुत्र को एक बक्से में रख कर गंगाजी में बहा दिया। कर्ण गंगाजी में बहता हुआ जा रहा था कि महाराज धृतराष्ट्र के सारथी अधिरथ और उनकी पत्नी राधा ने उसे देखा और उसे गोद ले लिया और उसका लालन पालन करने लगे। उन्होंने उसे वासुसेना नाम दिया। अपनी पालनकर्ता माता के नाम पर कर्ण को राधेय के नाम से भी जाना जाता है। अपने जन्म के रहस्योद्घाटन होने और अंग का राजा बना, जाने के पश्चात भी कर्ण ने सदैव उन्हीं को अपना माता-पिता माना और अपनी मृत्यु तक सभी पुत्र धर्म निभाया। अंग का राजा बनाए जाने के पश्चात कर्ण का एक नाम अंगराज भी हुआ।
कुमार अवस्था से ही कर्ण की रुचि अपने पिता अधिरथ के समान रथ चलाने कि बजाय युद्धकला में अधिक थी। कर्ण और उसके पिता अधिरथ आचार्य द्रोण से मिले जो उस समय युद्धकला के सर्वश्रेष्ठ आचार्यों में से एक थे। द्रोणाचार्य उस समय कुरु राजकुमारों को शिक्षा दिया करते थे। उन्होने कर्ण को शिक्षा देने से मना कर दिया क्योंकि कर्ण एक सारथी पुत्र था और द्रोण केवल क्षत्रियों को ही शिक्षा दिया करते थे। द्रोणाचार्य की असम्मति के उपरान्त कर्ण ने परशुराम से सम्पर्क किया जो कि केवल ब्राह्मणों को ही शिक्षा दिया करते थे। कर्ण ने स्वयं को ब्राह्मण बताकर परशुराम से शिक्षा का आग्रह किया। परशुराम ने कर्ण का आग्रह स्वीकार किया और कर्ण को अपने समान ही युद्धकला और धनुर्विद्या में निष्णात किया। इस प्रकार कर्ण परशुराम का एक अत्यन्त परिश्रमी और निपुण शिष्य बना।

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