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Showing posts from July, 2017

जब कर्ण ने कृष्ण व कुन्ती की चक्रवर्ती सम्राट की पेशकश ठुकरा दी थी

दुर्योधन के साथ शान्ति वार्ता के विफल होने के पश्चात श्रीकृष्ण, कर्ण के पास जाते हैं, जो दुर्योधन का सर्वश्रेष्ठ योद्धा है। वह कर्ण का वास्तविक परिचय उसे बतातें है, कि वह सबसे ज्येष्ठ पाण्डव है और उसे पाण्डवों की ओर आने का परामर्श देते हैं। कृष्ण उसे यह विश्वास दिलाते हैं कि चूँकि वह सबसे ज्येष्ठ पाण्डव है, इसलिए युधिष्ठिर उसके लिए राजसिंहासन छोड़ देंगे और वह एक चक्रवती सम्राट बनेगा। पर कर्ण इन सबके बाद भी पाण्डव पक्ष में युद्ध करने से मना कर देता है, क्योंकि वह अपने आप को दुर्योधन का ऋणी समझता था और उसे ये वचन दे चुका था कि वह मरते दम तक दुर्योधन के पक्ष में ही युद्ध करेगा। जब महाभारत का युद्ध निकट था। तब माता कुन्ती कर्ण से भेंट करने गई और उसे उसकी वास्तविक पहचान का ज्ञान कराया। वह उसे बताती हैं कि वह उनका पुत्र है और ज्येष्ठ पाण्डव है। वह उससे कहती हैं कि वह स्वयं को कौन्तेय कहे नाकी राधेय और तब कर्ण उत्तर देता है कि वह चाहता है कि सारा सन्सार उसे राधेय के नाम से जाने नाकी कौन्तेय के नाम से। कुन्ती उसे कहती हैं कि वह पाण्डवों की ओर हो जाए और वह उसे राजा बनाएगें। तब कर्ण कहता है कि ...

...तो कुन्ती चाहती तो नहीं होता महाभारत

कर्ण की पहचान छिपाना ही भारी पड़ा राजमाता कुन्ती अगर सही समय पर कर्ण की पहचान अपने बेटे के रूप में बता देतीं तो महाभारत ही न होता। कर्ण की छवि आज भी भारतीय जनमानस में एक ऐसे महायोद्धा की है, जो जीवनभर प्रतिकूल परिस्थितियों से लड़ता रहा। बहुत से लोगों का यह भी मानना है कि कर्ण को कभी भी वह सब नहीं मिला जिसका वह वास्तविक रूप से अधिकारी था। तर्कसंगत रूप से कहा जाए तो हस्तिनापुर के सिंहासन का वास्तविक अधिकारी कर्ण ही था क्योंकि वह कुरु राजपरिवार से ही था और युधिष्ठिर और दुर्योधन से ज्येष्ठ था लेकिन उसकी वास्तविक पहचान उसकी मृत्यु तक अज्ञात ही रही। यही महाभारत का मुख्य कारण बना था। कर्ण यदि ज्येष्ठ पांडव घोषित हो जाते तो दुर्योधन किसके बल पर युद्ध करता और कर्ण-अर्जुन के सामने कौन टिक पाता। यदि इसके बाद भी भीष्म पितामह की राजसिंहासन के प्रति आस्था आड़े आती तो उसे कृष्ण और विदुर नीति की सूझबूझ से सुलझा लिया जाता।  कर्ण की छवि द्रौपदी का अपमान किए जाने और अभिमन्यु वध में उसकी नकारात्मक भूमिका के कारण धूमिल भी हुई थी और यही दोनों कारण और गुरु परशुराम से छल के बदले मिले अभिशाप ही उसकी मृत...

अथर्व वेद के रचयिता हैं अंगिरा ऋषि

प्रथम मन्वन्तर के सप्तऋषियों में मरीचि, अत्रि, पुलाहा, कृतु,पुलस्त्य,वशिष्ठ, अंगिरा ऋषि थे । ऐसा कहा जाता है कि अथर्वन ऋषि के मुख से सुने मंत्रों के आधार पर ऋषि अंगिरा ने चार वेदों में से एक अथर्ववेद को साकार रूप दिया। इसके अतिरिक्त उन्होंने तीन अन्य वेदों ऋग्वेद,सामवेद और यजुर्वेद की रचना में भी काफी सहयोग किया। सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी ने सृष्टि की रचना में सहायता के लिए अपने मानसपुत्रों और प्रजापति को रचा। उसके बाद उनकी यह इच्छा हुई कि इन मानसपुत्रों और प्रजापतियों का कल्याण कैसे हो, इसके लिए उन्होंने एक बुद्धि यानी ज्ञानी पुत्र की आवश्यकता महसूस की और उन्होंने अपने पूर्ण तेज के साथ एक पुत्र की रचना रची। ये वही रचना थे महर्षि अंगिरा जी। अंगिरा ऋषि शुरू से बहुत ही तेजवान,बुद्धिमान और आंतरिक अध्यात्मिक क्षमता वाले थे। अंगिरा ऋषि में सम्पूर्ण जगत को ज्ञान देने की क्षमता थी। अंगिरा ऋषि को उत्पन्न करने के बाद ब्रह्माजी ने संदेश दिया कि अंगिरा तुम मेरे तीसरे मानस पुत्र हो। तुम्हें यह मालूम होना चाहिए कि तुम्हारा जन्म क्यों हुआ है और तुम इस जगत में क्यों आए हो? यह तुम्हें बताता हूं। संदेश...

श्रीकृष्ण भी महात्मा विदूर से घबराते थे?

विदुर का अर्थ कुशल, बुद्धिमान अथवा मनीषी। अपनी विदुर नीति, न्यायप्रियता एवं निष्पक्षता के लिए सुविख्यात धर्मज्ञ महाराज विदुर महाभारत के मुख्य पात्रों में से एक हैं। वो हस्तिनापुर के प्रधानमंत्री, कौरवों और पांडवों के काका और धृतराष्ट्र एवं पाण्डु के भाई थे। उनका जन्म एक दासी के गर्भ से हुआ था। राजा पांडु बने तो प्रधानमंत्री विदुर बने बड़े होने पर जब राज्याभिषेक का समय आया तो सबसे बड़े होने के कारण धृतराष्ट्र ही उत्तराधिकारी थे लेकिन विदुर की नीति के चलते ही भीष्म को पाण्डु को राजगद्दी सौंपनी पड़ी क्योंकि विदुर ने ही धृतराष्ट्र के नेत्रहीन होने के कारण राजपद न दिए जाने का सुझाव दिया था।  विदुर एक दासी  पुत्र  होने के कारण भले ही राजा बनने के अधिकार से वंचित रहे। लेकिन अपनी सूझबूझ तथा समझदारी के दम पर उन्हें हस्तिनापुर का प्रधानमंत्री बनाया गया। पाण्डु को राज्य सौंपने के पीछे विदुर के फैसले का भी साथ था, जिसका विरोध धृतराष्ट्र ने किया था। क्योंकि ज्येष्ठ पुत्र के साथ पर अनुज को राज्य की गद्दी सौंप देना धृतराष्ट्र को कभी भी गंवारा ना था। लेकिन तब वे अपने नेत्रहीन होने के ...