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जब तक वेदों का ज्ञान रहा, तब तक भारत रहा विश्व गुरू


वेदों के ज्ञान की उपेक्षा होते ही हम पूरे विश्व में उपेक्षित हो गये। हमने अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारी है। हमारी ही कमियां थीं और हम में से अधिकांश लोगों को वेदों का ज्ञान नहीं था। तभी हमारे ज्ञान के भंडार का मजाक उड़ाया और वेदों का बखान करने वालों को भी उपक्षित नजरों से देखा गया।

यही कारण था कि ज्ञान से वंचित विदेशी लोगों ने वेदो को गड़रिया के गीत और वेदों का गान करने वाले ऋषियों को संपेरा और बीन बजाने वाला कहकर मजाक उड़ाया और हम उनका मुंहतोड़ जवाब न दे सके क्योंकि हमें वेदों का ज्ञान ही नहीं था। हम उन बेहूदे लोंगों का ही समर्थन करते रहे क्योंकि हम आधुनिकता की होड़ में अंधे हो चुके थे। वेदों का ज्ञान प्राप्त करना आसान नहीं है। इसलिये लोगों ने वेदों को ही छोड़ दिया। लेकिन वेदों का अध्ययन करें तो पाया जायेगा कि हम दुनिया भर से अलग क्यों थे, क्यों हैं और क्यों रहेंगे।

इस बारे में एक श्रंखला शुरू कर रहे हैं। यह सामग्री आम जन को वेदों के प्रति अभिरुचि जगाने के लिए वेद वैचित्र्य नामक पुस्तक से ली जा रही है। हम इस पुस्तक के लेखक एवं प्रकाशित करने वाली संस्था के प्रति आभार प्रकट करते हैं।

आओ अग्नि का गुणगान करें

 

                                अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देव मृत्विजं।

                                होतारं रत्नधातमं  ।।1।।

                                   (ऋग्वेद।111)

 ऋषि-मधुच्छन्दा । देवता-अग्नि:। छन्द:-गायत्री। स्वर:-षड्ज:।

 अन्वय-यज्ञस्य देवं ऋत्विजं होतारं रत्नधातमं पुरोहितं अग्निं ईडे।

शब्दार्थ:-(यज्ञस्यदेवं) यज्ञ के देवता, विद्वानों के सत्कार संगम, महिमा, तथा धर्म के प्रेरक (ऋत्विजं) बार-बार उत्पत्ति के समय स्थूल सृष्टि के रचयिता, ऋतु-ऋतु में उपासना करने योग्य तथा विविध ऋतुओं के व्यवस्थापक (होतारं) देने तथा ग्रहण करने वाले तथा सम्बोधित  करने वाले (पुरोहितं) उत्पत्ति के समय से पहले परमाणु आदि सृष्टि के धारण करने वाले हितैषी (रत्नधातमं) और निश्चय करके ज्ञान-विज्ञान अथवा पृथ्वी के मनोहर स्वर्ण आदि रत्नों के धारण करने वाले (अग्निं) ज्ञान, गमन तथा प्राप्ति की व्यवस्था करने वाले ज्ञान स्वरूप अग्रगण्य परमेश्वर की (ईडे) हम स्तुति करते हैं।

दोहा-यज्ञदेवऋत्विजमहाहोतारत्न  सुखान।

      पूर्ण पुरोहित, अग्नि का प्रणव करें गुणगान ।।1।।

 

विवेचन

वैदिक साहित्य का यह सर्व प्रथम मन्त्र है, वेदों में, ऋग्वेद को प्राथमिकता प्रदान की गई है। वैदेिशक वेदज्ञ, विद्वान कालक्रम के आधार पर ऋग्वेद को सर्वप्रथम बना हुआ मानते हैं, किन्तु महर्षि दयानन्द सरस्वती की मान्यता के आधार पर चारों वेद समकालीन हैं और वे मैथुनी सृष्टि से पहले  अग्नि, वायु, आदित्य तथा अंगिरा इन चार महर्षियों के माध्यम से संसार में अविर्भूत हुए हैं। क्योंकि ऋग्वेद, ज्ञान काण्ड का प्रतिपादक है। अत: वह सर्वप्रथम माना जाता है, व्यवहारिक दृष्टिकोण से यह विषय सरलता से समझा जा सकता है, कि किसी कर्म, क्रिया या व्यापार करने से पूर्व उसका ज्ञान होना अनिवार्य है।

ज्ञानाभाव में कृत क्रिया अथवा कर्म तो पागल व्यक्ति की हरकत ही कही जावेगी। उसका स्पष्टीकरण इस प्रकार कीजिए। संसार में कोई व्यक्ति ऐसा नहीं मिल सकता, जिसको 1 से 100 तक गणित याद न हो, और वह एक से सौ तक गणित ब्लैक बोर्ड पर न लिख दे। स्पष्ट है, कि 1 से 100 तक गिनती लिखने के लिए पहले गिनती का स्मरण होना अनिवार्य है। बस 1 से 100 तक गिनती का स्मरण होना ज्ञान और उसको लिखना कर्म है। अत: ऋग्वेद की प्राथमिकता या प्रमुखता का कारण उसका ज्ञान-काण्ड से परिपूर्ण होना ही है।

आर्य समाज के तृतीय नियम में महर्षि दयानन्द ने इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार किया है-

वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है, वेद का पढ़ना, पढ़ाना तथा सुनना, सुनाना सब आर्यों का परम धर्म है।

निश्चित है, कि वेद सम्पूर्ण सत्य विद्या अर्थात् ज्ञान-विज्ञान का अक्षय ण्डार है, आर्य समाज का प्रथम नियम ी इसकी सम्पुष्टि करता है-

सब सत्य विद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं, उन सबका आदि मूल परमेत्नवर है।

क्योंकि वेद का आदि मूल परमेश्वर है और परमेश्वर अनन्त ज्ञान का आगार है, अत: उसका ज्ञान वेद ी अनन्तता से युक्त है। ऋग्वेद के उल्लिखित मन्त्र से ही अर्थ-विद्या के आधार पर वेद की अनन्तता तथा विचित्रता का आरम् हो जाता है, तथा ब्राह्मण ग्रन्थ के सुप्रसिद्ध वाक्य-वेदावैअनन्ता: की सार्थकता ी स्वत: सिद्ध हो जाती है।

कल्पना कीजिए एक व्यक्ति ने किसी नवीन वस्तु का आविष्कार किया, आविष्कार करने के साथ वह आविष्कर्त्ता आविष्कृत वस्तु  का ज्ञान, उपयोग अथवा उपयोग की विधि का ज्ञान न करावे तो वह आविष्कार व्यर्थ ही समझना चाहिए। अत: प्रु परमेश्वर ने सम्पूर्ण सृष्टि की रचना के उपरान्त वेद ज्ञान इसीलिए प्रदान किया ताकि मनुष्य सृष्टि के स्वरूप की संरचना, उपयोगिता,प्रासंगिकता तथा प्रयोगात्मकता जानकर अधिकाधिक स्वजीवन को लाान्वित तथा सार्थक कर सके।

प्रस्तुत मन्त्र में विचित्रता यह है, कि यहाँ ईश्वर ने मनुष्य को अग्नि की स्तुति, गुण-विवेचन, अथवा गुण-कीर्तन का आदेश दिया है। विचारणीय है, कि क्या सर्व साधारण अग्नि शब्द से जिस अग्नि (आग) को जानता है, उसी के गुण-गान की रूपरेखा मन्त्र में प्रदर्शित की गई है। बस इसी दिशा का चिन्तन मनुष्य को ज्ञानार्जन एवं ज्ञान-वर्द्धन की ओर ले जाता है।

प्रस्तुत मन्त्र में 1-अग्नि, 2-पुरोहित, 1-यज्ञ,(यज्ञस्यदेवं) 4-देव, 5-ऋत्विज, 6-होता, 7-रत्नधातमं ये सात शब्द प्रयुक्त हैं। इस मन्त्र में एक क्रिया पद ईडे का प्रयोग किया गया है। इस ईडे क्रिया का सम्बन्ध अग्नि शब्द से है। शेष पुरोहित, यज्ञ देव ऋत्विज होता तथा रत्नधातम: ये शब्द अग्नि की विशेषताएँ प्रकट करते हैं। अत: इस प्रक्रिया से विशेष्य तथा विश्लोषण का बोध ी मानव को प्रु ने कराया। इससे ी प्रथम क्रमश: अक्षर शब्द, तथा वाक्य के स्वरूप को दर्शाया गया है। जैसे कि मन्त्र के प्रथम शब्द अग्नि में प्रथम अक्षर अ का प्रयोग है, अ समस्त वर्णमाला का जनक है, अ की ही परिवर्तित ध्वनियाँ वर्णमाला के विविध अक्षर हैं। ये अक्षर ी स्वर तथा व्य़जन-ोद से दो प्रकार के निर्धारित किए गए हैं-

(1) स्वर-वे ध्वनियाँ या अक्षर कहलाते हैं स्वयं राजन्ते इति स्वरा: के अनुसार बिना अन्य किसी ध्वनि की सहायता के स्वयं उच्चरित होते हैं । ये स्वर ी दो प्रकार के होते हैं।

(क) मूल स्वर-जैसे अ,,, , तथा लृ।

(ख) संयुक्त स्वर-वे हैं जो ध्वनियों के मिश्रण से व्यवहृत होते हैं, जैसे अ़+इ=ए, अ़+ए़=ऐ, अ़+उ=ओ, अ़+ओ=औ।

(2) व्य़जन-ध्वनियाँ या अक्षर वे हैं, जो अन्व वति के आधार पर स्वरों की सहायता से उच्चरित होते हैं। ये क से लेकर म पर्यन्त तथा य,,,,त्ना,,,,क्ष,त्र,ज्ञ, हैं। इनमें ी अन्तिम के तीन व्यंजन संयुक्त व्यंजन कहलाते हैं क्योंकि इनकी रचना कष=क्ष, त़र=त्र तथा ज़ा=ज्ञ इस प्रकार होती है। स्मरणीय है, कि व्य़जन का उच्चारण स्वरों के सहयोग से ही होता है। यह तथ्य सम्पूर्ण व्य़जनों के उच्चारण से सुस्पष्ट है। जैसे हम-क,का,कि,कु,कू, के,कै, को,कौ तथा कं, क: का उच्चारण करेंगे तो कोई न कोई स्वर की ध्वनि इनके उच्चारण में अवश्य ही मिश्रित रहेगी। इन ध्वनियों के लिए संस्कृत ाषा में वर्ण तथा अक्षर शब्द का प्रयोग होता है। अक्षर शब्द का अर्थ ही न क्षरतीति अक्षर: अर्थात-अक्षर उस छोटी-से छोटी ध्वनि को कहा जावेगा जिसका अंश ाग-विाग न हो सके। इस परिाषा के आधार पर ाषा-वैज्ञानिकों का अिामत है, कि अक्षर केवल वैदिक या संस्कृत ाषा के पास ही हैं, संस्कृत को छोड़कर विश्व की किसी ाषा के पास अक्षर नहीं हैं- ले ही वे लेटर्स, या हरूफ कहे जाते हैं।

व्याकरण का साधारण सा नियम है, कि अक्षरों के संयोग से शब्द तथा शब्दों के संयोग से वाक्य का निर्माण होता है, किन्तु शब्दों के साथ कम से कम एक क्रिया की स्थिति अवश्यमेव होनी चाहिए। इसलिए संस्कृत व्याकरण वाक्य की परिाषा करते हुए लिखता है- एकति वाक्यं अर्थात जिस शब्द समूह के साथ न्यूनातिन्यून एक क्रिया का प्रयोग होगा वही शब्द समूह वाक्य कहा जावेगा। प्रस्तुत मन्त्र में इस प्रक्रिया पर विचार कीजिए जैसे कि मन्त्रगत अग्नि, पुरोहित, यज्ञ देव आदि शब्द तो होते हैं, किन्तु ईडे क्रिया का प्रयोग न होता तो न तो यह शब्द-समूह वाक्य कहलाता, न उसको ऋचा ही कहा जाता, और न शब्दों की सार्थकता ही सिद्ध हो पाती। ध्यातव्य है, कि मन्त्र में क्रमत्ना: अ, , , , , औ तथा अं का स्पष्ट प्रयोग किया गया है। द्रष्टव्य-अग्निमीळे पुरोहितं यहाँ अग्नि शब्द में क्रमश: अ,, मीळे में ई, तथा ए, पुरोहितं में उ,ओ तथा अं का प्रयोग सर्वथा स्पष्ट है, इस प्रकार परमपिता परमेश्वर ने ाषा के मौलक अंग अक्षर, शब्द, वाक्य तथा क्रिया पदों का ी ज्ञान प्रदान किया है।

मन्त्र में जिस अग्नि की स्तुति करने का वर्णन है, उस अग्नि के विशेषताबोधक (1) पुरोहित, (2) यज्ञदेव, (3) ऋत्विक्, (4) होता तथा (5) रत्नधातमं ये पाँच शब्द प्रयुक्त किए गए हैं।

क्योंकि शब्द की विशेषता का परिचायक शब्द विशेषण तथा जिस शब्द की विशेषता प्रकट की जाती है वह शब्द विशेष्य कहलाता है, इस प्रकार मन्त्र में विद्यमान अग्नि शब्द विशेष्य तथा शेष पाँचों शब्द विशेषण हैं। इस प्रकार इस ऋचा के द्वारा प्रु ने विशेष्य तथा विशेषण शब्दों का ी स्वरूप प्रकट कर दिया है।

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